क्या शिमला शहर का अस्तित्व अब संकट में है?

हिमाचल प्रदेश देश के उन राज्यों में से एक है जो हमेशा से ही अपनी भौगोलिक सुंदरता और पर्यटन के लिए दुनियाभर में जाना जाता रहा है। शिमला, मनाली, डलहौज़ी, कसौली, धर्मशाला जैसे शहर अक्सर घूमने-फिरने के शौक़ीन लोगों की लिस्ट में शामिल मिलते हैं। लेकिन बीते कुछ सालों से ये शहर प्राकृतिक आपदाओं से जुड़ी घटनाओं के लिए भी खबरों में रहने लगे हैं। खासतौर पर, शिमला। दिल्ली से लगभग साढ़े तीन सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह शहर तमाम पर्यटकों के साथ-साथ दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में रहने वाले लोगों के लिए भी सबसे सहजता से पहुंची जा सकने वाली जगह है। इसका असर यह हुआ है कि कभी हमें शिमला जाने के रास्ते में दिनों लंबे ट्रैफ़िक जाम देखने को मिलते हैं तो कभी अचानक हुए भूस्खलन की खबरें सुनाई देती हैं। शिमला में लगातार आने वाली आपदाओं को लेकर जानकारों का कहना है कि पहाड़ों में प्राकृतिक आपदाएं आने की संभावना पहले से ही अधिक होती है तिस पर शिमला शहर को इसकी क्षमता से अधिक भार ढोना पड़ रहा है।

शिमला के इतिहास पर गौर करें तो ब्रिटिश राज में इसे लगभग 25,000 लोगों के रहने की योजना के साथ बसाया गया था। अपने 160 साल पुराने इतिहास में यहां का नगर निगम, ‘हिमाचल प्रदेश नगर निगम अधिनियम, 1994’ के पारित होने और 21 वार्डों के संशोधित परिसीमन के साथ एक स्वायत्त अस्तित्व में आया था। साल 2017 तक शहर में 25 वार्ड थे। साल 2018 में कुछ नए वार्डों को नगर निगम क्षेत्राधिकार में जोड़ा गया है जिससे इनकी कुल संख्या अब 34 हो गई है। नगर निगम, शिमला में कुल 46,306 घर हैं और कुल जनसंख्या लगभग 2.5 लाख है। इस आंकड़े को इस तरह देखा जा सकता है कि महज़ 25000 लोगों के लिए बसाए गए शहर में अब उससे ठीक दस गुना अधिक लोग रह रहे हैं। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि समय के साथ शिमला पर जनसंख्या का बोझ किस तरह से पड़ रहा है।

भूस्खलन (लैंडस्लाइड) से बढ़ता संकट

पिछले कुछ सालों से राज्य के अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ शिमला में भूस्खलन के मामले बेहद तेजी से बढ़ रहे हैं। इस इलाक़े का पहला बड़ा भूस्खलन फरवरी, 1971 में शिमला में हुआ था, जब रिज मैदान का एक बड़ा उत्तरी हिस्सा नीचे गिर गया था। इससे उसके नीचे बने पानी के टैंक पर आए खतरे के चलते शिमला शहर संकट में आ गया था। इसके बाद, ऐसी बड़ी आपदा अगस्त, 1989 में देखने को मिली जब मटियाना में हुए भूस्खलन के चलते चालीस लोगों को जान गंवानी पड़ी थी। लेकिन हालिया कुछ सालों में, खासतौर पर 2014, 2015, 2017, 2021 और अब 2023 में इस इलाक़े से दुर्घटना और मौत की खबरें लगातार आ रही हैं।  

बीते अगस्त में, शिमला के शिव बावड़ी मंदिर में भूस्खलन ने इस कदर तबाही मचाई कि 20 श्रद्धालुओं की मलबे के नीचे दबने से मौत हो गई थी।

बीते अगस्त में, शिमला के शिव बावड़ी मंदिर में भूस्खलन ने इस कदर तबाही मचाई कि 20 श्रद्धालुओं की मलबे के नीचे दबने से मौत हो गई थी। वहीं, इसी दौरान शिमला के कृष्णा नगर वार्ड में हुए भूस्खलन से करीब छह मकान ढह गए जिसने हर किसी को अंदर तक झकझोर कर रख दिया। इस तरह शहर में केवल एक महीने के भीतर भूस्खलन से 27 लोगों की मौत हो गई तथा 150 परिवार बेघर हो गए। कृष्णा नगर के बारे में जानकारों की राय है कि यहां कई महीने बाद भी खतरा टला नहीं है। इसका मुख्य कारण यह है कि पूरे शहर के नालों का पानी कृष्णानगर इलाके में आता है। बेघर हुए परिवारों में से 100 परिवार अकेले इसी इलाक़े से थे जो हर तरह से असुरक्षित है।

भूस्खलन के कारण

1. शिमला शहर में, इसकी क्षमता से अधिक निर्माण कार्य किए जाने के कारण यहां से पानी के प्रवाह अक्सर रुक जाता है और यह भूस्खलन की वजह बनता है। यहां तक कि राज्य के मौजूदा मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू को भी पिछले दिनों बयान जारी कर यह कहना पड़ गया कि इलाक़े में ड्रेनेज सिस्टम का न होना भूस्खलन की बड़ी वजह है। राज्य के मुख्यमंत्री का यह भी मानना है कि भवनों के मूल ढांचे पर भी ध्यान देने और इन्हें पर्यावरण के मुताबिक बनाए जाने की जरूरत है। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, हिमाचल प्रदेश में राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने कुल 16,000 राजमिस्त्रियों को प्रशिक्षण देने का लक्ष्य तय किया गया है। इसमें प्राचीन एवं नई भवन शैली को जोड़ते हुए प्रदेश के भवनों को प्राकृतिक परिस्थितियों के अनुसार तैयार किए जाने पर काम किया जाएगा।

2. शिमला में किया गया लगभग 90 फीसदी  60-70 डिग्री पहाड़ी ढलानों पर किया गया है जो वास्तुशिल्प और भूवैज्ञानिक मानदंडों के खिलाफ हैं। भारतीय मानक ब्यूरो के अनुसार रहवासी इलाक़ों के लिए जहां 30 डिग्री पहाड़ी ढलान पर निर्माण किया जाना चाहिए, वहीं ग़ैर-रहवासी निर्माण कार्य के लिए पहाड़ी ढलान 45 डिग्री तक हो सकता है। तीखे ढलानों पर बनने की वजह से ये इमारतें प्राकृतिक आपदाओं के लिए अतिसंवेदनशील हो जाती हैं। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की एक व्यापक रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘शिमला में सर्वेक्षण की गई 2,795 इमारतों में से लगभग 65 प्रतिशत इमारतें असुरक्षित हैं।’

भूस्खलन की घटनाओं पर जलवायु परिवर्तन का भी असर पड़ता है। | चित्र साभार: विकिमीडिया कॉमन्स / सीसी बीवाय

3. शहर में भूस्खलन की एक बड़ी वजह लगातार शहर से हरियाली का कम होना भी है। दरअसल, पेड़ों की जड़ें मिट्टी पर मजबूती के साथ पकड़ बनाती हैं तथा पहाड़ों के पत्थरों को भी बांधकर रखती हैं। पेड़ों को लगातार काटे जाने से ये पकड़ कमज़ोर पड़ती है और जब बारिश होती है, तो पहाड़ के बड़े बड़े पत्थर गिरने लगते हैं। कई मीडिया रिपोर्टों में इस बात का भी ज़िक्र मिलता है कि सिटी डिजास्टर मैनेजमेंट प्लान और हैजर्ड रिस्क एडं वल्नरेबिलिटी असेसमेंट की रिपोर्ट में भी शिमला शहर में निर्माण कार्य को सुनियोजित तरीके से करने, ग्रीन एरिया को बढ़ाने की बात कही गई है। शहर के 33 फीसदी हिस्से को लैंडस्लाइड की दृष्टि से हाई रिस्क पर रखा गया है, जबकि 51 फीसदी हिस्से को मॉडरेट और केवल 16 फीसदी हिस्से को कम खतरनाक बताया गया है।

4. भूस्खलन की घटनाओं पर जलवायु परिवर्तन का भी असर पड़ता है। हिमालय में यह सबसे अधिक दिखाई देता है। जब बारिश ज्यादा होती है तो पहले से ही अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे पहाड़ी इलाक़ों की मुसीबत और बढ़ जाती है। इस बार शिमला में सामान्य से 64 प्रतिशत अधिक बारिश दर्ज की गई जिसका बुरा असर पूरे शहरभर में देखने को मिला।

शहर पर लगातार बढ़ता दबाव

पर्यटन, शिमला की आय का प्रमुख स्रोत रहा है। जनवरी से जून, 2023 तक राज्य में कुल एक करोड़ छह हजार पर्यटक पहुंचे, जिसमें 36 प्रतिशत शिमला और कुल्लू जिले की यात्रा करने वाले थे। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि समय के साथ शिमला में पर्यटकों की भीड़ कितनी तेजी से बढ़ रही है तथा इसका स्थानीय नागरिकों पर क्या असर पड़ सकता है। इसका एक उदाहरण, वर्ष 2018 के पर्यटन सीजन में शिमला की स्थानीय जनता पानी की गंभीर समस्या के चलते सड़कों पर आ जाना है। यही नहीं, इस दौरान स्थानीय लोगों ने पानी की किल्लत के चलते पर्यटकों से शिमला न आने की गुहार तक लगा डाली थी। इसके बाद सरकार भी इसे लेकर संजीदा हुई।

शिमला, प्रदेश की राजधानी भी है तो इसके चलते लगभग सभी विभागों के मुख्यालय यहीं पर स्थित हैं। इस वजह से अलग-अलग जिलों की जनता एवं प्रतिनिधियों को शिमला आना-जाना पड़ता है। इससे शहर में लोगों और गाड़ियों की संख्या बढ़ जाती है। यही नहीं, शहर में पीक ट्रैफिक में पर्यटकों की भरमार से कारों की औसत गति सिर्फ 10 किमी/घंटा हो जाती है। ऐसे में किसी मरीज़ के लिए समय पर अस्पताल पहुंचने जैसी बातें एक बड़ी चुनौती बन जाती हैं। इससे निजात पाने के लिए पिछले कुछ समय से राजधानी शिमला की क्षमता को लेकर विधानसभा में भी  उठीं हैं कि आखिर कैसे शहर पर अलग-अलग विभागों के बढ़ते बोझ को कम किया जाए और कुछ विभागों को राज्य के अन्य जिलों में शिफ्ट किया जाए। 

बेहतर योजनाओं की जरूरत

योजना किसी भी कार्य एवं जगह के विकास के लिए सबसे प्राथमिक विषय होता है। शिमला का बुनियादी ढांचा 1979 में तैयार की गई एक अंतरिम विकास योजना पर आधारित है। फरवरी 2022 में, सरकार की ओर से 2041 का ड्राफ्ट डेवलपमेंट प्लान को पेश किया गया था। इस नई योजना का उद्देश्य आने वाले दो दशकों में शहर के विकास की रूपरेखा तैयार करना था। इसमें न केवल सतत विकास (सस्टेनेबल डेवलपमेंट) का ध्यान रखा जाना था बल्कि शहर का विस्तार किए जाने की जरूरतों के साथ-साथ बदलती परिस्थिति से उपजी चुनौतियों का भी संज्ञान लेना था। लेकिन नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने एक महीने बाद, इस पर यह कहते हुए रोक लगा दी कि इससे पर्यावरण और सार्वजनिक सुरक्षा के लिए विनाशकारी नतीजे हो सकते हैं। ऐसे में शहर के लिए इसका समाधान कब और कैसे निकल पाएगा? और, कैसे अनियोजित निर्माण, जलवायु परिवर्तन तथा विकास नीतियों में असंतुलन के चलते अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने पर मजबूर, यह खूबसूरत शहर, शिमला जीत पाएगा और बना रह पाएगा।

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रुस-यूक्रेन युद्ध: हिमाचल में सेब के किसानों पर कैसे पड़ा असर

तुलसी राम शर्मा हिमाचल प्रदेश के ठियोग ज़िले में सेब की खेती करते हैं। उन्होंने हमें बताया कि “इस समय हम दोहरी मार झेल रहे हैं। ख़राब मौसम और खाद की कमी ने हम किसानों और बागवानों की कमर तोड़ दी है।” हिमाचल प्रदेश में मुख्य रूप से सब्ज़ियों और सेब की खेती होती है। लेकिन पिछले दिनों खाद की उपलब्धता में आई भारी कमी ने कई किसानों की आजीविका पर बुरा असर डाला है। यह मामला भारत और चीन के बीच बिगड़ते संबंधों से जुड़ा है और चल रहे रुस-यूक्रेन युद्ध का भी असर इस पर पड़ा है। प्रसिद्ध कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र सिंह का कहना है कि यह आपदा युद्धग्रस्त यूक्रेन से होने वाली आपूर्ति में आई बाधा का परिणाम है जो यूरिया उर्वरकों का दुनिया का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है।

हालांकि हिमाचल प्रदेश स्टेट कोऑपरेटिव मार्केटिंग एंड कंज्यूमर्स फेडरेशन (हिमफेड) ने किसानों एवं बागवानों को राज्य के कृषि एवं बाग़वानी विश्वविद्यालयों द्वारा विकसित किए गए जैविक खाद उपलब्ध करवाने की मुहिम शुरू की है। लेकिन इस बढ़ते संकट के सामने ये सभी प्रयास अपर्याप्त साबित हो रहे हैं। 

राज्य की कुल आबादी का लगभग 69 प्रतिशत हिस्सा कृषि एवं बाग़वानी का काम करता है। जिसका मतलब यह है कि इस कमी से लगभग 9.61 लाख किसान और 2.5 लाख बागवान सीधे रूप से प्रभावित हो रहे हैं। फूल आने से पहले सेब के पौधों को नाईट्रोजन की ज़रूरत होती है। इस ज़रूरत को खाद से पूरा कर दिया जाता है वहीं गेहूं की अच्छी फसल के लिए यूरिया उर्वरक आवश्यक है। दोनों की भारी कमी का मतलब है गेहूं की कमजोर फसल और गर्मी के कारण सेब के फूलों का समय से पहले तैयार हो जाना।

बागवानी विशेषज्ञ डॉ एस पी भारद्वाज ने हमें बताया कि सर्दियों के मौसम में निष्क्रिय पौधे वसंत में दोबारा जीवंत हो जाते हैं। आमतौर पर इसी समय खाद के माध्यम से इन पौधों को पोषक तत्व दिए जाते हैं। ऐसा करके पौधों को अगले फसल चक्र के लिए तैयार किया जाता है। हालांकि उर्वरकों की कमी से पूरा का पूरा फसल चक्र बाधित हो गया है।

बढ़ते तापमान और अपर्याप्त बारिश साथ-साथ लम्बे समय तक शुष्क रहने वाले मौसम भी हिमाचल के किसानों के इस दुख का कारण हैं। मौसम ब्यूरो के डेटा के मुताबिक, मार्च 2022 पिछली सदी का सबसे गर्म मार्च रहा। फलने-फूलने के लिए कम तापमान की आवश्यकता वाली सेब की फसलों को ऐसे कठोर मौसम में बहुत नुकसान होता है। हिमाचल में सेब का सालाना कारोबार 4,500 करोड़ रुपये से अधिक है। लेकिन यदि परिस्थितियां ऐसी ही प्रतिकूल बनी रहीं तो इससे राज्य की आर्थिक सेहत पर असर पड़ना तय है।

रमन कांत एक फ्रीलांस पत्रकार, कॉलमनिस्ट और लेखक हैं और शिमला में रहते हैं।

यह एक लेख का संपादित अंश है जो मूल रूप से 101 रिपोर्टर्स पर प्रकाशित हुआ था।

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अधिक जानें: जानें कि कैसे कश्मीर में होने वाली अखरोट की खेती कभी-कभी लोगों की जान भी ले लेता है।

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