शादी की कीमत

मध्य प्रदेश के एक गैर-अधिसूचित जनजाति (डीएनटी) के बंछाड़ा समुदाय की औरतें पारंपरिक रूप से सेक्स-वर्क से जुड़ी रही हैं। वे कम उम्र में ही काम करना शुरू कर देती हैं और अपने परिवारों की सबसे कमाऊ सदस्य होती हैं। पुरुष सदस्यों को आमतौर पर अनौपचारिक क्षेत्रों जैसे निर्माण से जुड़े काम मिलते हैं। जिनमें उन्हें रोजाना बहुत कम दिहाड़ी मिलती है। 

सेक्स-वर्क के साथ कलंक का भाव जुड़ा होता है जिसके कारण महिलाओं और पुरुषों दोनों के लिए दूसरे तरह के रोजगार ढूंढ पाना मुश्किल हो गया है। समुदाय की एक सदस्य अंजलि* बताती है कि “इसके कारण हालत ऐसी हो जाती है कि जीवन से जुड़े हर पहलू में औरतों के ऊपर बहुत बोझ हो जाता है”, शादी में भी इसके कारण ऐसी ही समस्या होती है। 

अंजलि आगे बताती है कि “जब एक पुरुष की शादी होती है तो दूल्हे के परिवार को 2 से 2.5 लाख तक रुपये देने पड़ते हैं और यह पैसे दूल्हे की बहन कमा कर लाती है”। इस तरह की शर्तें ग्राम पंचायत की ही एक इकाई जाति पंचायत द्वारा तय की जाती है जिसका काम विशेष जाति के आचरणों को निर्धारित करना है। उसी तरह अगर दुल्हन उस शादी के बंधन से बाहर निकलना चाहती है तब उसे या उसके परिवार को दूल्हे के परिवार से मिलने वाली राशि का दोगुना भुगतान करना पड़ता है। दोनों ही मामलों में महिलाओं को ही भुगतना पड़ता है। 

कानूनी तौर पर इस प्रथा को चुनौती देना आसान नहीं होता। पुलिस-कचहरी जाने का कोई मतलब नहीं होता क्योंकि जाति पंचायत समुदाय के रहन-सहन का तरीका तय करती है। अंजलि का कहना है कि “सब कुछ के बावजूद हमारी जवाबदेही अभी भी पंचायत के प्रति है, क्योंकि हमें यहीं रहना है।”

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिया गया है। 

अंजलि एक स्वयंसेवी संस्थान की कर्मचारी है जो यौन हिंसा और बंधुआ मजदूरी के पीड़ितों के लिए काम करती है। देबोजीत आईडीआर में समपादकीय सहयोगी हैं। यह लेख अंजलि के साथ किए गए संवाद को आधार बनाकर लिखा गया है।

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नाम में क्या रखा है?

मध्य प्रदेश के बंछाड़ा समुदाय की मेघा* का कहना है कि “हमारे लिए शिक्षा हासिल करना दूसरों की तुलना में दोगुना मुश्किल है।”

गैर-अधिसूचित जनजाति के बंछाड़ा समुदाय का जातिगत पेशा सेक्स वर्क है। समुदाय की ज़्यादातर लड़कियां जीवन में कभी-भी स्कूल का मुँह तक नहीं देख पाती हैं और उन्हें जवान होते ही सेक्स के धंधे में धकेल दिया जाता है।

मेघा आगे बताती है कि सेक्स के धंधे में काम करने वाली महिलाओं का कामकाजी जीवन बहुत छोटा होता है और 26 से 27 की उम्र के बाद उनके लिए काम खोजना मुश्किल हो जाता है। ऐसी औरतों को औपचारिक क्षेत्रों में काम नही मिल सकता है। सेक्स के धंधे और जातीय भेदभाव से जुड़े कलंक के कारण अनौपचारिक क्षेत्रों में भी काम मिलना असंभव ही है। मेघा का कहना है कि, “अगर उन्हें घरेलू कामकाज करने वाले मजदूर के रूप में काम मिल भी जाता है तो भी उन्हें यौनकर्मियों के समुदाय से आए लोगों के रूप में ही देखा जाता है। अक्सर उन्हें अपने मालिकों से गालियाँ सुननी पड़ती हैं।”

इस समुदाय की कई औरतें शिक्षा को इस समस्या का समाधान मानती हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि इससे उन्हें ऐसी नौकरियाँ मिलने में आसानी होगी जिन्हें समाज का बड़ा तबका सम्मान की नज़र से देखता है। हालांकि, परिवार के सदस्यों और समुदाय के बाकी लोगों को इस बात के लिए तैयार करना एक मुश्किल काम है। क्योंकि सदियों से बंछाड़ा समुदाय के लिए उनकी जवान लड़कियां कमाई का मूल स्त्रोत रही हैं।

इसके अलावा भी कई तरह की समस्याएँ हैं। सरकार द्वारा जारी किए गए सर्क्युलर के बावजूद, कई विद्यालय अब भी प्रवेश के लिए पिता का नाम और उससे जुड़े दस्तावेजों की मांग अनिवार्य रूप से करते हैं। बंछाड़ा समुदाय के बच्चों को अक्सर अपने पिता का नाम मालूम नहीं होता है। मेघा कहती है कि, “यह हमारे लिए एक दुष्चक्र है। आपको सेक्स कार्य के अलावा कोई दूसरा काम नहीं मिल सकता है क्योंकि आपके पास शिक्षा नहीं है। और आपको शिक्षा नहीं मिल सकती है क्योंकि यह व्यवस्था इसी तरह काम करती है।”

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिया गया है।

मेघा एक स्वयंसेवी संस्थान के लिए काम करती है जो यौन हिंसा और बंधुआ मजदूरी के पीड़ितों के साथ काम करता है। देबोजीत आईडीआर में समपादकीय सहयोगी हैं। यह लेख मेघा के साथ किए गए संवाद को आधार बनाकर लिखा गया है।

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