घर और ग्राउंड के बीच: फुटबॉल खेलती कोलकाता की लड़कियां

फुटबॉल खेलती लड़कियां_फुटबॉल
पहले मोहल्ले में लड़कियों के लिए अलग से ग्राउंड नहीं था इसलिए वे लड़कों के साथ खेलती थीं। | चित्र साभार: आई-पार्टनर इंडिया

मैं पश्चिम बंगाल के कोलकाता जिले के राजाबाज़ार इलाके में रहती हूं। मुझे बचपन से ही फुटबॉल और क्रिकेट खेलने में बहुत ​रुचि थी। हालांकि सब इन्हें लड़कों वाले खेल मानते हैं लेकिन मैं 8-10 साल की उम्र से फुटबॉल खेल रही हूं। 

हम यहां 5-6 सहेलियां है जिन्हें फुटबॉल खेलना पसंद है। लेकिन हमें बहुत सारी चुनौतियों का सामना लगभग हर रोज ही करना पड़ता है। हममें से कुछ के परिवार वाले हमारे खेलने के ख़िलाफ़ थे। वहीं, जो भी मान गए उनकी शर्तें कुछ ऐसी थीं – अगर लड़कियां खेलेगी तो उन्हें पूरे कपड़े पहनने होंगे, वे बहुत देर तक घर से बाहर नहीं रह सकतीं हैं, वगैरह-वगैरह। ज्यादातर लड़कियों को ट्राउजर-स्लेक्स पहनकर फुटबाल खेलना पड़ता था। इसके अलावा, सबसे बड़ी शर्त घर के कामों की ज़िम्मेदारी निभाना है जो हम सभी करती हैं। और, फुटबॉल खेलने के साथ भी करती आईं हैं। 

पहले मोहल्ले में लड़कियों के लिए अलग से ग्राउंड नहीं था। इसलिए हम लड़कों के साथ खेलते थे। लेकिन जल्दी ही इस पर आसपास के लोग बातें बनाने लगे कि “ये लड़कियां इतनी बड़ी हो गईं हैं और अभी भी ग्राउंड में खेलती हैं। फुटबॉल कोई लड़कियों वाला खेल नहीं है।” लोग हमारे घर वालों को भी ताना मारते थे कि वे हमें बाहर खेलने कैसे भेज सकते हैं? 

दोस्त होने और एक जैसी समस्याओं का सामना करने से हम लड़कियों के बीच एक गहरी दोस्ती और समझ बन गई है। इसके कारण हम समस्याओं से निपटने में एक-दूसरे की मदद भी करते हैं। इसी वजह से हम लड़कियों ने अपने समुदाय में होने जा रहे एक बाल विवाह के खिलाफ आवाज उठाई, उसके बाद हमें काफी विरोध झेलना पड़ा था। इस मामले को लोकल मीडिया ने भी कवर किया और उसे देखकर ही साल 2019 में आई-पार्टनर इंडिया की टीम आई। हमने उनसे गुजारिश की कि वे हमें प्रोफेशनल तरीके से फुटबॉल खेलना सिखाएं। संस्था ने पहले हमें लैंगिक, सेक्शुअल और प्रजनन स्वास्थ्य, और फुटबॉल के बारे में जानकारी दी। इसके बाद ‘वन टीम वन ड्रीम’ प्रोजेक्ट के तहत हमारी फुटबॉल टीम तैयार हुई।

मैं हमारे टीम की सबसे पुरानी खिलाड़ी हूं लेकिन हमारे कोच को घर पर अब भी बहुत समझना पड़ता है कि “आयशा अच्छा खेलती है, अगर सही कोचिंग मिलेगी तो वो टूर्नामेंट जीत सकती है। वो टाइम से घर आ जाया करेगी।” इसके बाद भी घरवाले तब राजी हुए जब मैंने उनसे कहा कि मैं घर का पूरा काम करके जाउंगी। मैं सुबह उठकर घर के काम में मम्मी की मदद करती हूं, खाना बनाती हूं और उसके बाद ही फुटबॉल खेलने जाती हूं। 

शहर से बाहर मैच खेलने के लिए भी हम सहेलियां एक-दूसरे के काम में साथ देती है। वे मेरे कामों की ज़िम्मेदारी अपने सर ले लेती हैं, जैसे – खाना बनाना, सफाई करना वग़ैरह। जब तक मैं टूर्नामेंट से वापस नहीं आती, वे इसे पूरा करती हैं। मैं भी उनके लिए ऐसा करती हूं। लेकिन इन दिक्कतों के कारण कई लड़कियों ने फुटबॉल खेलना ही बंद कर दिया है। 

हालांकि अब धीरे-धीरे कुछ बदलाव आ रहा है। फुटबॉल की प्रैक्टिस करने के लिए 60 से ज्यादा लड़कियां आती हैं। अब हमारी नई टीम, साउथ 24 परगाना जिले के मल्लिकपुर इलाके में है और हम सब भी सप्ताह में तीन बार वहीं खेलने जाते हैं। इसके अलावा हम रेसिडेंशियल फुटबॉल कैंप में भी प्रशिक्षण लेते हैं। घर के कामों के साथ हम 4-5 घंटे ही प्रैक्टिस कर पाते हैं। कोच कहते हैं कि अगर हमें नेशनल लेवल का खिलाड़ी बनना है तो रोजाना आठ घंटे की प्रैक्टिस जरूरी है। लेकिन परिवार वाले अभी भी इसके लिए राजी नहीं हैं। 

आएशा परवीन कोलकाता में फुटबॉल खेलती हैं। 

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एक युवा क्रिकेटर जो अपने समुदाय को लैंगिक समानता पर पुनिर्विचार करने में मदद करती है

मेरी उम्र 17 साल है। मैं कोलकाता में अपने माँ-बाप और पाँच भाई-बहनों के साथ रहती हूँ। मेरे पापा बढ़ई हैं और माँ दूसरों के घरों में काम करती हैं। मेरी बड़ी बहन की अब शादी हो चुकी है और उसके बाद की बहन बारहवीं कक्षा में विज्ञान की पढ़ाई कर रही है, और मैं ग्यारहवीं में हूँ और कॉमर्स पढ़ती हूँ। उसके बाद मेरी छोटी बहन है जो नौवीं में है और मेरा भाई सातवीं में। उसके बाद वाली मेरी बहन अभी पाँचवी में पढ़ती है।

हमारा घर रेलवे स्टेशन के पास है जिससे मुझे सियालदह में अपने स्कूल तक जाने में आसानी हो जाती है। मैं ट्रेन पकड़ती हूँ और पाँच मिनट में स्कूल पहुँच जाती हूँ। लेकिन कोविड-19 ने मेरी दिनचर्या को बदल कर रख दिया है। अब मैं पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन का इस्तेमाल करती हूँ। 

मुझे क्रिकेट खेलना पसंद है। मैं बचपन से ही अपने इलाके में खेलती आई हूँ लेकिन मैंने कभी भी यह नहीं सोचा था कि मैं राष्ट्रीय स्तर पर भारत का प्रतिनिधित्व भी करूंगी। यह 2019 की बाद है जब मैंने लंदन में होने वाले स्ट्रीट चाईल्ड क्रिकेट वर्ल्ड कप में हिस्सा लिया था। मैं उस टीम का हिस्सा थी जिसमें चार लड़के और चार लड़कियां थीं जिन्हें सेव द चिल्ड्रेन इंडिया द्वारा देश भर से चुना गया था। मैं अब भी उस टीम के साथ खेलती हूँ और उस टीम की उप-कप्तान हूँ। 

सुबह 5.00 बजे: हालांकि अभी तक स्कूल खुले नहीं हैं लेकिन मैं सुबह जल्दी ही सोकर जग जाती हूँ। इस तरह से मैं ऑनलाइन क्लास शुरू होने से पहले घर के कामों में माँ की मदद कर सकती हूँ।

लेकिन ऑनलाइन क्लास आसान नहीं है। हमारे मोहल्ले के ज़्यादातर लोगों के पास एंडरोइड फोन नहीं है। मेरे घर में भी सिर्फ एक ही फोन है। जब यह उपलब्ध होता है तब मैं क्लास कर लेती हूँ। लॉकडाउन में यह विशेष रूप से मुश्किल था। पापा को बहुत ज्यादा काम नहीं मिल रहा था और कई बार तो ऐसा हुआ कि हम अपना फोन तक रिचार्ज नहीं करवा पाते थे।

सुबह 7.00 बजे: मैंने अंतत: उस टैली के बैलेंस का काम पूरा कर लिया जिसपर मैं कुछ दिनों से काम कर रही थी। मुझे अकाउंटींग का काम पसंद है। कुछ साल पहले तक इतिहास मेरा पसंदीदा विषय था। इसमें अच्छा अंक लाना बहुत आसान था! आप चाहे पाँच अंक के प्रश्न पर दो पेज का जवाब ही क्यों न लिख दें आपको चार या पाँच अंक मिल जाते थे। लेकिन फिर मैं अपनी बड़ी बहन हो देखती थी जिसने कॉमर्स विषय चुना था और पेंसिल और स्केच से बड़ी रेखाएँ बनाती थी और लैपटॉप पर काम करती थी। मुझे यह अच्छा लगता था और आठवीं कक्षा में मैंने यह फैसला किया कि अगर मैं 11वीं तक पढ़ पाई तो मैं भी कॉमर्स ही पढ़ूँगी।

ऑनलाइन क्लास में पढ़ाई जाने वाली चीजों को सीखना आसान नहीं है और यह क्लास लगातार नहीं होती है। जब स्कूल की पढ़ाई नहीं होती है या जल्दी खत्म हो जाती है तब मैं पास के मैदान में जाकर अपने दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलती हूँ। मैं भैया लोगों के साथ बचपन से खेलती आई हूँ। शुरुआत में वह मुझे सिर्फ फील्डिंग का मौका ही देते थे। बाद में मैं बल्लेबाजी और गेंदबाजी भी करने लगी। मुझे बल्लेबाजी बहुत ज्यादा पसंद है लेकिन अब मैं एक ऑल-राउंडर हूँ।

लाल रंग की टीशर्ट में हाथ में माइक लिए हुए एक लड़की दर्शकों से बात कर रही है। उसके पीछे एक सफ़ेद बोर्ड है। लूसी शर्मा लैंगिक समानता पर कार्यशाला का आयोजन करती है और लोगों को प्रशिक्षण देती है_युवा क्रिकेटर
उन लोगों में से कई ने मेरी इस बात पर सहमति जताई है कि लड़का और लड़की दोनों को शिक्षा का अधिकार है। | चित्र साभार: सेव द चिल्ड्रेन

दोपहर 12.00 बजे: मैं लगभग इसी समय घर आती हूँ। यह एक पुरानी आदत है। जब स्कूल खुला था तब मैं ट्रेन पकड़कर दोपहर तक घर वापस आ जाती थी। मैं और मेरे भाई-बहन घर के कामों में माँ की मदद करते हैं और फिर हम लोग साथ में दोपहर का खाना खाते हैं।

हालांकि, चीजें बेहतर हुई हैं क्योंकि अभिभावकों ने यह समझना शुरू कर दिया है कि हम किसी का नुकसान नहीं चाहते। उनमें से कई लोग अब हमारी बैठकों में आने लगे हैं। अभिभावकों के साथ होने वाली आज की बैठक संतोषजनक है। उन लोगों में से कई ने मेरी इस बात पर सहमति जताई है कि लड़का और लड़की दोनों को शिक्षा का अधिकार है। यह एक बहुत बड़ी जीत है। 

हाल तक मेरे इलाके की कई लड़कियों को शिक्षा हासिल करने की अनुमति नहीं थी। वह घर पर ही रहती थीं और उनके भाई घूमने-फिरने, खेलने या स्कूल जाने के लिए बाहर निकलते थे।

उसके बाद मैं ड्रीम एक्सिलेटर लघुपरियोजना पर काम करने के लिए बाहर निकलती हूँ जो बच्चों के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर की जाने वाली एक पहल है। यह परियोजना 2020 में शुरू हुई थी और इसे यह नाम इसलिए दिया गया था क्योंकि यह प्रत्येक बच्चे के सपने और उन सपनों को आगे ले जाने के विषय पर ध्यान देता है। मैंने फैसला किया कि मैं लोगों से लैंगिक मुद्दों पर बात करना चाहती हूँ। मैं उनसे इस विषय पर बात करना चाहती हूँ कि कैसे लड़कियों और लड़कों के साथ भेदभाव होता है। सेव द चिल्ड्रेन के माधबेन्द्र सिंह रॉय के साथ हम लोग इलाके के कई घरों में जाते हैं और लैंगिक भेदभाव के बारे में अभिभावकों से बातचीत करते हैं। हम लोग उनके बच्चों को हमारी बैठकों में भेजने के लिए भी कहते हैं। शुरुआत में कई अभिभावकों ने हमारी बात को अनसुना कर दिया था। वह हमें बच्चा कहकर बगल कर देते थे। बाकी के लोग हमारी बातें सुनते थे और इससे सहमत थे कि लैंगिक भेदभाव है लेकिन उनका यह भी कहना था कि वे इस तरह का भेदभाव नहीं करते हैं इसलिए उन्हें अपने बच्चों को इस तरह की बैठकों में भेजने की जरूरत नहीं है। 

स्कूल की पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों में से एक बच्चे का हम लोगों ने पुनर्नामांकन करवाया है।

समस्या यह है कि इलाके में लड़कियों का सरकारी स्कूल सिर्फ कक्षा आठ तक ही है। चूंकि कक्षा आठ तक की शिक्षा मुफ्त है इसलिए अभिभावक तब तक उन्हें पढ़ने देते हैं। लेकिन नौवीं कक्षा के बाद पैसे का भुगतान करने की वजह से वे अपनी लड़कियों को स्कूल नहीं भेजते हैं। अभिभावकों से की गई हमारी बातचीत से इसमें मदद मिली है। अब कम से कम उनकी सोच में बदलाव आ रहा है। स्कूल छोड़ चुके बच्चों में से एक या दो का पुनर्नामांकन हमारे द्वारा करवाया गया है।

दोपहर 2.00 बजे: आज मुझे बच्चों के एक समूह से भी मिलना है। हमनें काफी शुरुआत में ही यह फैसला कर लिया था कि हम लोग माँ-बाप से अलग सिर्फ उनके बच्चों से मुलाक़ात करेंगे। हमें यह अहसास हुआ कि बच्चे वही कहते हैं जो उन्हें दिखता है। बड़े लोग उतना खुलकर अपनी बात नहीं करते हैं। इसका कारण या तो शर्म है या फिर वे अपने घर की बात को सबके सामने नहीं लाना चाहते हैं। अलग से बात करने पर बच्चे अपनी समस्याओं और लैंगिक मुद्दों पर बात करते हैं।

इन बैठकों में हम लोग लिंग-आधारित भेदभाव पर बात करते हैं और इसे अपने आसपास घटित होने से रोकने पर चर्चा करते हैं। भले ही यह हमारे घर की बात ही क्यों न हो। इसलिए अगर आप एक लड़का हैं और आपके माँ-बाप आपकी बहन के साथ बुरा बर्ताव करते हैं तब आपको उन्हें यह बताना चाहिए कि वे आप दोनों को एक नजर से देखें क्योंकि दोनों के पास एक से अधिकार हैं। हम लोग उन्हें यह बताते हैं कि भेदभाव सही नहीं है। हमारी बातों को समझने के लिए आमतौर पर एक दिन काफी नहीं होता है इसलिए हम कई दिन तक ऐसी बैठकों का आयोजन करते हैं। एक हद तक हमारे इलाके में होने वाले भेदभाव में कमी आई है।

जब हमनें इसे शुरू किया था तब बहुत सारे बच्चों ने लिंग और इस आधार पर होने वाले भेदभाव के बारे में सुना भी नहीं था। इसलिए हमनें कुछ विषयों की सूची तैयार की जिसमें लिंग क्या है, जो भी है वह ऐसा क्यों है और कैसी जगहों पर लिंग संबंधी समस्याएँ देखने को मिलती हैं, आदि शामिल हैं। हमनें लिंग को बताने वाले 20 सवालों का एक सर्वे फॉर्म बनाया। इस फॉर्म में यह बताया गया है कि लड़कियों और लड़कों के बीच होने वाले भेदभाव की भूमिका क्या है और हम इससे सहमत क्यों नहीं हैं। हमनें 20 बच्चों का चुनाव करके उन्हें इन मुद्दों पर प्रशिक्षित किया। इसके बाद, उनमें से प्रत्येक बच्चे ने अपने इलाके के 10 बच्चों का चुनाव किया और उनसे और उनके परिवार वालों से लिंग-आधारित होने वाले भेदभाव के बारे में बातचीत की। इस तरह से हमारा संदेश 200 घरों तक पहुंचा। 

शाम 4.00 बजे: मैं दोबारा खेलने के लिए बाहर जाती हूँ। यह मेरे दिन का सबसे अच्छा हिस्सा होता है। आज पड़ोस के एक चाचा ने टिप्पणी करते हुए कहा कि लड़कियों को लड़कों के साथ नहीं खेलना चाहिए। लेकिन मुझे इसकी परवाह नहीं है कि लोग क्या कहते हैं।

जब मैं बड़ी हो रही थी तब मुझे अक्सर ऐसा लगता था कि काश मैं लड़का होती। लेकिन धीरे-धीरे मुझे यह बात समझ में आ गई कि मैं वह सबकुछ कर सकती हूँ जो लड़के करते हैं। जब मेरा चुनाव लंदन में होने वाले विश्व कप के लिए हुआ तब लोग सशंकित थे। उन्होनें मेरे माता-पिता से यह कहा कि क्रिकेट प्रशिक्षण की आड़ में स्वयंसेवी संस्थाएं मुझे उनसे दूर कर देंगी और मैं उनके पास लौटकर वापस कभी नहीं आऊँगी। लेकिन मेरे माँ और पापा ने मेरा साथ दिया था। वे डरे हुए भी थे और उनके साथ मैं भी, लेकिन मैं लोगों को गलत साबित करना चाहती थी। मुझे लगा कि अगर मैं अपने डर को हावी होने दूँगी तो कभी भी अपनी क्षमताओं के बारे में नहीं जान पाऊँगी और वे यही सब कहते रहेंगे जो आज कहते हैं। 

मैंने अपने इलाके के गली के बच्चों के बारे बात की जिनके पास पहचान पत्र नहीं है और इसलिए वे स्कूल नहीं जा सकते हैं।

वर्ल्ड कप में चुने जाने के लिए मैंने बहुत अधिक मेहनत की थी। मैंने लंदन को सिर्फ टीवी पर देखा था। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं लंदन जाऊँगी। लेकिन मैं गई। और मुझे सभी मंत्रियों के सामने हाउस ऑफ कॉमन में बात करने का मौका भी मिला था। यह एक बहुत बड़ा अवसर था! मैंने अपने इलाके की गली के उन बच्चों के बारे में बात की जो पहचान पत्र नहीं होने के कारण स्कूल नहीं जा सकते हैं। और कैसे आधार कार्ड नहीं होने की वजह से उनके पास पहचान पत्र नहीं है। उन्हें किसी भी तरह का अवसर नहीं मिलता है और वे कहीं बाहर नहीं जा सकते हैं। मुझे वास्तव में यह सब अनुभव करके बहुत अच्छा लगा था। 

शाम 6.00 बजे: अब घर जाने का समय हो गया है। हालांकि आज मैंने बहुत ज्यादा रन नहीं बनाए हैं लेकिन फिर भी हमारी टीम 30 रन से जीत गई है। अंधेरा हो चुका है। कुछ साल पहले तक किसी ने सोचा भी नहीं था कि लड़कियाँ शाम में इतनी देर तक खेल सकती हैं। माँ-बाप यह कहकर उन्हें जाने नहीं देते थे कि अंधेरे में बाहर जाना हमारे लिए सुरक्षित नहीं है। अब हम लोग उन्हें यह कहकर मना लेते हैं कि बिजली आने से अब रौशनी है। इसलिए अब आप देखेंगे कि हमारे इलाके की लड़कियाँ शाम में भी खेलने के लिए बाहर निकल जाती हैं।

मेरे लंदन यात्रा से लोगों की सोच में भी बदलाव आया है। इलाके के सभी लोगों को हम पर गर्व है। अब उन्हें इस बात पर भरोसा है कि लड़कियाँ भी कुछ कर सकती हैं। लोग हमें गंभीरता से लें इसके लिए हमें क्रिकेट को गंभीरता से लिया। इस खेल ने मुझे बहुत कुछ सिखाया है। सबसे जरूरी सीख यह है कि अकेले कुछ भी नहीं किया जा सकता है। आपको अच्छे परिणाम तभी मिलते हैं जब आप एक टीम के रूप में काम करते हैं।

मैंने अपने ड्रीम एक्सिलेटर लघुपरियोजना पर काम करने के दौरान भी बहुत कुछ सीखा है, और मैं लोगों की सोच को बदलने के लिए लगातार काम करना चाहती हूँ। मैं लोगों को यह समझाना चाहती हूँ कि लड़कियाँ भी कम नहीं हैं। लेकिन यह सबकुछ यहाँ ख़त्म नहीं हो सकता है। अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है। उदाहरण के लिए, आसपास रहने वाले तीसरे लिंग के लोगों को हमारे मोहल्ले में स्वीकृति नहीं मिली है। हमारे समाज में यह एक पुरानी परंपरा है जिसके तहत लड़के और लड़कियों को शामिल किया गया है लेकिन तीसरे लिंग के लोगों को नहीं। हमारे द्वारा निर्मित समाज उनके साथ भेदभाव करता है और उन्हें अपने से अलग समझता है।

इसलिए मैं इस काम को करती रहूँगी। और मैं क्रिकेट के अपने खेल को भी जारी रखूंगी। मैं बड़ी होने के बाद क्या बनूँगी? पहले मैं एक शिक्षक बनना चाहती थी- एक अच्छी दिल वाली शिक्षक। लेकिन अब जब मैं कॉमर्स की पढ़ाई कर रही हूँ मुझे लगता है कि मैं इससे संबंधित कुछ करूंगी जैसे कि बैंकिंग।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

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