क्यों जैसलमेर के किसानों को सोलर प्लांट नहीं चाहिए

जैसलमेर के ओरण (पवित्र बगीचा) को स्थानीय लोगों द्वारा पारंपरिक रूप से सामान्य भूमि के रूप में माना जाता रहा है। जैसलमेर में ज़्यादातर घुमंतू और चरवाहे समुदाय के लोग रहते हैं जो इस विशाल भूमि की देखभाल करते हैं और इलाके के समृद्ध जैव-विविधता का ध्यान भी रखते हैं। इसके बदले में, यह भूमि इन्हें अपने गायों और भैंसों के लिए चारे उपलब्ध करवाती है। हाल ही में, अक्षय ऊर्जा का उत्पादन करने के लिए भूमि के इन बड़े हिस्सों में सौर संयंत्र स्थापित किए गए हैं।

आम धारणा के विपरीत, इन संयंत्रों से स्थानीय लोगों को नौकरियां नहीं मिल रही हैं – यहां के ज़्यादातर कामों की प्रकृति तकनीकी है और समुदाय के लोग इन कामों के लिए प्रशिक्षित नहीं हैं। स्थानीय लोगों को इन संयंत्रों में सुरक्षा गार्ड आदि जैसे कम-वेतन वाले काम ही मिल सकते हैं। इसके अलावा, ये संयंत्र घास की पैदावार को बर्बाद कर रहे हैं जिसका उपयोग यहां के स्थानीय लोग अपने मवेशियों के चारे के रूप में करते हैं। कुछ किसान सोलर फ़र्म में काम कर रहे कर्मचारियों को घी और दूध बेच कर अपनी आजीविका चला रहे हैं। लेकिन घी और दूध का उत्पादन भी मवेशियों के अच्छे और पौष्टिक भोजन पर ही निर्भर होता है।

एक अन्य प्रासंगिक मुद्दा यह है कि सौर संयंत्र उन विभिन्न जानवरों की प्रजातियों को नुकसान पहुंचा रहे हैं जिनके लिए ये ओरण उनका घर हैं। ओरण पारिस्थितिक रूप से विविध हैं और लुप्तप्राय या महत्वपूर्ण के रूप में सूचीबद्ध कई प्रजातियों को सुरक्षा प्रदान करते हैं। पश्चिमी राजस्थान में, ये जंगल गंभीर रूप से लुप्तप्राय सोन चिरैया या गोडावण (ग्रेट इंडियन बस्टर्ड) का घर हैं, जिनमें से लगभग 150 ही बचे हैं। सौर और पवन ऊर्जा परियोजनाओं के हिस्से के रूप में बिछाई गई कई हाई-टेंशन बिजली की तारें ओरण से होकर गुजरती हैं। बिजली की ये तारें पक्षियों के लिए ख़तरा हैं और इनसे टकराने से पक्षियों की मृत्यु के कई मामले सामने आए हैं। ओरण भूमि के नुकसान ने चल रहे संरक्षण प्रयासों को भी बाधित किया है।

वर्तमान में, ओरण भूमि पर इन संयंत्रों की स्थापना को लेकर राजस्थान में पर्याप्त मात्रा में आंदोलन किया जा रहा है। समुदाय के लोग सोलर प्लांट के निर्माण के विरोध में नहीं हैं लेकिन वे चाहते हैं कि इससे होने वाले नुक़सान एवं प्रभावों पर ढंग से बात की जाए और उनकी गंभीरता को समझा जाए। इसलिए यदि ओरण का कुल क्षेत्रफल 100 बीघा है तो उसमें से केवल 25 बीघा का इस्तेमाल ही सोलर प्लांट के निर्माण के लिए किया जाना चाहिए। पिछले सप्ताह 15 ओरणों के लगभग 30 समुदायिक नेता KRAPAVIS द्वारा आयोजित वर्कशॉप में शामिल हुए थे जहां उन्होंने ओरणों से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर बातचीत की।

2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने घोषणा की थी कि ओरण को जंगल माना जाता है लेकिन स्थानीय सरकारों ने इन्हें जंगल माने जाने की इस मुहिम में तेज़ी नहीं दिखाई और उन्हें जंगल की श्रेणी में नहीं माना गया। इसके अतिरिक्त सोलर पावर परियोजनाओं को पर्यावरणीय प्रभाव के मूल्यांकनों से बाहर रखा गया है। नतीजतन, बड़ी कम्पनियों को स्थानीय लोगों और पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में बिना जाने ही अपनी परियोजनाओं को स्थापित करने में आसानी होती है।

अमन सिंह राजस्थान में जमीनी स्तर पर समाजसेवी संगठन, कृषि एवं पारिस्थितीकी विकास संस्थान (KRAPAVIS) के संस्थापक हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें: जानें बारिश के बदलते पैटर्न जैसलमेर के समुदायों और कृषि को कैसे प्रभावित कर रहे हैं।

अधिक करें: उनके काम को विस्तार से जानने और अपना सहयोग देने के लिए लेखक से [email protected] पर सम्पर्क करें।

जैसलमेर में बारिश होना अच्छी ख़बर क्यों नहीं है

बीते कई सालों से राजस्थान की बारिश अप्रत्याशित हो गई है। पहले चार महीने की (जिसे चौमासा कहा जाता है) लगातार बारिश होती थी। यह बारिश जून के अंतिम सप्ताह में शुरू होकर सितम्बर तक होती थी। अब मानसून देरी से आता है और जब आता है तो बाढ़ आ जाती है। एक तरफ़, सर्दी का मानसून—जिसमें सर्दियों में 15 से 20 दिनों तक बारिश होती है—अब समाप्त हो चुका है। दूसरी तरफ़, थार के रेगिस्तानी इलाके में अक्सर ही बाढ़ आने लगी है और जैसलमेर जैसे ज़िलों में हरियाली आ गई है जहां पहले रेगिस्तान था। इस तरह के बदलावों ने समुदायों की फसल और खानपान के तरीके को भी बदल दिया है।

परंपरागत रूप से, जैसलमेर जिले में रहने वाले समुदाय सर्दियों के मौसम में खादिन (कृषि के लिए सतही जल संचयन के लिए बनाई गई एक स्वदेशी प्रणाली) में चना उगाया करते है। चने की फसल सर्दियों के मानसून के दौरान कम बारिश पर निर्भर करती है, और अत्यधिक वर्षा इसके विकास के लिए हानिकारक होती है। इसलिए, जैसलमेर की जलवायु में बदलाव और सिंचाई नहरों की स्थापना के साथ, चने की लोकप्रियता में कमी आ रही है और गेहूं सर्दियों की पसंद की फसल के रूप में उभरा है क्योंकि यह चने की तुलना में अधिक पानी की मांग करता है। आजकल, जैसलमेर में, भूजल की कमी जैसे दीर्घकालिक प्रभावों के बावजूद लोग गेहूं के खेतों की सिंचाई के लिए बोरवेल और नलकूपों का उपयोग कर रहे हैं। वास्तव में, 600 से 1,200 फीट की गहराई तक खोदे गए बोरवेल को देखना कोई असामान्य बात नहीं है।

गेहूं के अलावा, समुदायों ने उन नकदी फसलों की ओर रुख किया है जो इन क्षेत्रों में लगभग अनुपस्थित थीं। आज जैसलमेर में किसानों के बाजार मूंगफली और प्याज जैसी फसलों से भरे हुए हैं। गेहूं, प्याज और कपास ने बाजार पर कब्जा कर लिया है और पारंपरिक खाद्य फसलों जैसे बाजरा (मोती बाजरा) वगैरह गायब हो चुके हैं। अप्रत्याशित बारिश के पैटर्न के कारण भी खाने की कुछ किस्में थाली से ग़ायब हो चुकी हैं। ओरान (पवित्र उपवन) सेवन और तुम्बा जैसी जंगली घासों से भरे होते थे जो मानसून के दौरान उगते थे। यहां बसने वाले समुदाय के लोग सेवन घास के दानों का उपयोग रोटी बनाने के लिए करते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं है क्योंकि घास को उगने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता है।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अमन सिंह राजस्थान में जमीनी स्तर पर काम करने वाले एक समाजसेवी संगठन, कृषि एवं पारिस्थितिकी विकास संस्थान (KRAPAVIS) के संस्थापक हैं।

अधिक जानें: ओडिशा के जंगलों में लगातार लगने वाली आग के कारणों के बारे में जानें।
अधिक करें: अमन के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना समर्थन देने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।