मैं झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले में क्वेस्ट एलायंस नाम की संस्था में प्रोग्राम ऑफिसर के तौर पर काम करती हूं। मेरे काम में मुख्य रूप से सामाजिक एवं भावनात्मक शिक्षा यानि सेल पर अध्यापकों को सपोर्ट करना रहता है। यह एक शिक्षण पद्धति है जो गहराई से अपने विचार सुनने और साझा करने को बढ़ावा देती है।
यह बात साल 2023 की है, जब मैं अपने जिले के कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय में नौवीं कक्षा की छात्राओं के साथ एक कक्षा आयोजित कर रही थी। हम उस दिन कक्षा में सुमेरा ओरांव* की कहानी पर चर्चा कर रहे थे जो सेल पाठ्यक्रम का हिस्सा थी। ग्रामीण झारखंड की कई महिलाओं की तरह, सुमेरा भी डायन प्रथा से जूझ रही थी। सुमेरा ने अपना जीवन अंधविश्वास और डायन करार दिए जाने के कलंक से लड़ते हुए बिताया था।
कहानी सुनाने के बाद एक छात्रा मेरे पास आई और उसने पूछा, “आपने हमें बताया कि यह एक सच्ची कहानी है। क्या आप मुझे सुमेरा का फ़ोन नंबर दे सकती हैं?” मैंने उससे पूछा, “आपको उनका नंबर क्यों चाहिए?” इस पर बच्ची ने मुझे अपनी दादी के बारे में बताया, जिन्हें उनके गांव में डायन कहा जाता था और लोग उन्हें हर जगह जाने से बाहर कर देते थे।
उसने मुझसे कहा, “हमारे गाँव में कोई भी मेरी दादी के पास नहीं आता और न बात करता है।
मैंने उस छात्रा से कहा कि जब आप घर जाओगे तो आपने सुमेरा की कहानी से जो कुछ भी सीखा है वो अपने परिवार के साथ इसे साझा करना। उसकी दादी लोगों के व्यवहार की वजह से बहुत तंग आ चुकी थीं और गांव छोड़ने के लिए भी तैयार थीं क्योंकि पूरा समुदाय उनके खिलाफ था।
लेकिन छात्रा ने घर जाकर अपने परिवार को इस पूरे मामले के बारे में समझाया और इस मुद्दे को पंचायत में ले जाने के लिए राजी कर लिया क्योंकि स्कूल में उसे बताया गया था कि किसी को डायन कहना और उनके साथ भेदभाव करना दंडनीय अपराध है। पंचायत की बैठक में परिवार ने तर्क दिया, “हमारे परिवार में बहुत सारे बच्चे हैं जो सभी स्वस्थ हैं। यदि दादी सच में बच्चों को नुकसान पहुंचाती, तो क्या वे सभी बच्चे अभी तक ठीक रहते?” पंचायत ने परिवार के पक्ष में अपना फैसला सुनाया और इस पर गांव वालों को झुकना पड़ा। उस बातचीत को एक साल से ज्यादा हो गया है और परिवार अभी भी गांव में रह रहा है।
यह सब होने के बाद मैंने उस छात्रा से कहा कि यह सब इसलिए संभव हो पाया क्योंकि आप इस कहानी से मिले सबक को अपने जीवन में लागू कर पाए।
प्रीति मिश्रा क्वेस्ट एलायंस में एक प्रोग्राम ऑफिसर हैं।
*गोपनीयता के लिए नाम बदल दिये गए हैं।
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मेरा नाम सौविक साहा है। मैं भारत के युवाओं, विशेष रूप से पिछड़े समुदाय के युवाओं के लिए एक सुरक्षित वातावरण बनाने के लिए काम करता हूं।
मैं झारखंड के जमशेदपुर में एक बस्ती में बड़ा हुआ हूं। मेरे पिता फ़ैक्ट्री में काम करते थे और माँ घर पर ही रहकर मेरे और मेरी बहन की देखभाल किया करती थीं। हम लोग निम्न-मध्य वर्गीय परिवार से आते थे इसलिए मेरे बातचीत का दायरा आसपास के दोस्तों और परिवार के सदस्यों तक ही सीमित था। हालांकि जब मैं अपनी आगे पढ़ाई करने कलकत्ता यूनिवर्सिटी गया तो मेरे लिए वह बिल्कुल नया अनुभव था। मुझे विभिन्न पृष्ठभूमि से आने वाले और मुझसे बेहतर जीवन जी रहे लोगों से बातचीत करने और उनके सम्पर्क में आने का मौका मिला। मैं जिस हॉस्टल में रहता था वह छात्र राजनीति का एक मुख्य केंद्र था। इसलिए वहां रहते हुए मेरे अंदर राजनीतिक भागीदारी का एक जुनून पैदा हो गया। नतीजतन मैंने अपने कॉलेज का अधिकांश समय धरने और नुक्कड़ नाटक में बिताने लगा था।
अपनी बीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने शहर के ही एक बैंक में काम करना शुरू कर दिया। लेकिन जल्दी ही 9–5 वाली इस नौकरी से ऊबने लगा और मैंने नौकरी छोड़ दी। मेरे अंदर युवाओं के लिए कुछ करने की प्रबल इच्छा थी। मेरी इसी इच्छा के कारण मैंने प्रवाह द्वारा दिए जाने वाले फ़ेलोशीप चेंजलूम के लिए आवेदन दिया और मेरा चयन हो गया। एक फ़ेलो के रूप में मेरी इस यात्रा से मुझे यह समझने में मदद मिली कि वास्तव में मैं किस प्रकार का काम करना चाहता हूं। और इसलिए 2010 में मैंने जमशेदपुर में पीपल फ़ॉर चेंज की स्थापना की। यह एक ऐसा संगठन है जो विशेष रूप से पिछड़े समुदाय के युवाओं को महत्वपूर्ण जीवन कौशल सिखाता है और उन्हें निजी और सार्वजनिक बदलाव लाने में सक्षम बनाता है।
मुझे संगठनों और इकोसिस्टम में भरोसा है इसलिए मैं कॉमम्यूटिनी – द यूथ कलेक्टिव और वार्तालीप कोअलिशन जैसी जगहों पर वोलन्टीयर के रूप में काम करता हूं। अपने इस विचार को बढ़ाने के लिए मैंने झारखंड के युवाओं के साथ काम कर रहे विभिन्न संगठनों से सहयोग लेकर झारखंड यूथ कलेक्टिव का आयोजन किया। मैंने जमशेदपुर क्वीर सर्कल की भी स्थापना की है। यह शहर में क्वीर युवा और उनके साथियों के लिए एक खुला मंच है जहां उन्हें अपने लिए सुरक्षित और पूर्वाग्रह मुक्त माहौल मिलता है। यहां हम लगभग 500 ट्रांसजेंडर और 700 ऐसे क्वीर युवा का ख़्याल रखते हैं जिन्हें जमशेदपुर जैसे नगरों में अक्सर जानबूझकर दबाया जाता है या उनकी उपेक्षा की जाती है।
सुबह 5.00 बजे: मैं दिन की शुरुआत अपने छोटे से बगीचे में काम करने से करता हूं। यहाँ मैं कुछ सब्ज़ियां और फूल उगाता हूं। मुझे बाग़वानी में मज़ा आता है क्योंकि इससे मेरा मन शांत रहता है और साथ ही मुझे अपने दिन की शुरुआत किसी रचनात्मक काम से करना पसंद है। इसके बाद मैं रसोई में जाकर सबके लिए खाना तैयार करता हूं। मैं अपने माता-पिता के साथ रहता हूं। मेरी माँ लम्बे समय से बीमार हैं इसलिए घर और रसोई के काम की ज़िम्मेदारी मैंने अपने ऊपर ले ली है। घर का सारा काम ख़त्म करने के बाद मैं काम पर जाने की तैयारी करता हूं।
सुबह 7.00 बजे: दफ़्तर जाने से पहले मैं उन स्कूलों का दौरा करता हूं जिनके साथ मिलकर हम समय-समय पर कई तरह के कार्यक्रम आयोजित करते हैं। मैं वहां के प्रधान अध्यापकों और मुख्य सदस्यों से मिलकर चल रहे कार्यक्रमों के बारे में बातचीत करता हूं। इन में से ही एक कार्यक्रम युवाओं के बीच अंतर-सांस्कृतिक मित्रता का भी है। उदाहरण के लिए एक बार हमनें दोस्ती के इस कार्यक्रम में एक मुस्लिम लड़के और ब्राह्मण लड़की की जोड़ी बनाई थी। इस कार्यक्रम के तहत की गई बातचीत के माध्यम से उन्होंने एक दूसरे की निजी और सांस्कृतिक समानताओं और असमानताओं के बारे में विस्तार से जाना। इससे उन्हें अलग दिखने वाले लोगों से मिलने-जुलने की सुविधा मिली। हालांकि पहले इस कार्यक्रम का विरोध किया गया था। एक स्कूल के प्रिंसिपल ने हमारी टीम को उनके स्कूल में हमारे इस कार्यक्रम को बंद करने का निर्देश दिया था। उन्हें उन अभिभावकों से शिकायतें मिल रहीं थी जिन्हें लगता था कि इस तरह के कार्यक्रम उनकी परम्परा और संस्कृति का अपमान हैं।
मुझे इस बात का एहसास हुआ कि युवाओं को सशक्त करने के लिए तैयार किए जाने वाले डिज़ाइन में समाज के इन रक्षकों द्वारा किए जाने वाले हस्तक्षेप को शामिल करने की ज़रूरत है।
हमारे काम में समाज के ऐसे रक्षकों द्वारा किया जाने वाला विरोध मुख्य चुनौती है। हालांकि ऐसी चुनौतियां मेरे और मेरी टीम को बेहतर और अधिक कारगर उपाय ढूँढने में मददगार ही साबित हुई हैं। हमनें कई सालों तक लगातार अभिभावकों और शिक्षकों के साथ बैठकर बातचीत की। इन बैठकों में मुझे यह एहसास हुआ कि युवाओं को सशक्त करने के लिए हमारे द्वारा तैयार किए जाने वाले डिज़ाइन में समाज के इन रक्षकों द्वारा किए जाने वाले हस्तक्षेप को शामिल करने की ज़रूरत है। इसलिए अब हमारे सभी युवा कार्यक्रमों में हितधारकों से सक्रिय संवाद और उनके साथ मिलकर काम करना शामिल है।
सुबह 9.00 बजे: अपनी सुबह की मीटिंग निपटा कर मैं दफ़्तर जाता हूं। वहां मैं अपनी टीम से हमारे चल रहे कार्यक्रमों का ब्योरा लेता हूं। आज की मीटिंग का मुख्य विषय हमारे आने वाले फेलोशीप कार्यक्रम के लिए रणनीति बनाना और पाठ्यक्रम तैयार करना है। यह कार्यक्रम शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे युवा नेतृत्व को विकसित करने के उद्देश्य से आयोजित किया गया जिनका काम यह सुनिश्चित करना है कि पूरे झारखंड के बच्चों को अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा उपलब्ध हो रही है। इस काम के लिए कार्यक्रम प्रबंधक, इंटर्न और मैंने साथ बैठकर हर उस विषय पर गहरी चर्चा की जिसे फेलोशीप के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा।
सुबह 11.00 बजे: मैं झारखंड के एक छोटे से शहर जादूगोड़ा में हमारे द्वारा स्थापित सामुदायिक केंद्रों के दौरे के लिए जा रहा हूं जहां मेरी भेंट इस केंद्र को चलाने वाले युवा टीम से होगी। इस टीम ने इस शहर की 100 लड़कियों के साथ एक बैठक आयोजित की है जिसमें उनकी कुछ तात्कालिक समस्याओं और चिंताओं के बारे में बातचीत की जाएगी। भारत का सबसे बड़ा यूरेनियम का खान इसी छोटे से शहर में है। यहां रेडियोधर्मी कचरे के अनुचित निपटान के परिणामस्वरूप कैंसर के मामले बहुत अधिक पाए जाते हैं। हम लोगों ने जादूगोड़ा की युवा लड़कियों के लिए आजीविका के अन्य अवसरों के निर्माण के उद्देश्य को ध्यान में रखकर इन लड़कियों के साथ काम करना शुरू किया। उनके साथ काम करने की प्रक्रिया में उन्हें शिक्षित करना भी शामिल है। हम उन्हें उनके मौलिक अधिकारों से अवगत करवाते हैं और उन्हें वोलन्टीयर बनने का प्रशिक्षण भी देते हैं। इससे उन्हें अपने समुदाय की सेवा करने का मौक़ा मिलता है। समुदाय के लोग ही हमें मिडिल स्कूल और आंगनवाड़ी केंद्र जैसी जगहें उपलब्ध करवाते हैं जहां हम अपनी कक्षाएँ आयोजित करते हैं।
जादूगोड़ा मेरे दफ़्तर से काफ़ी दूर है इसलिए मैंने सार्वजनिक वाहन के बजाय अपने मोटरसाइकल से वहां जाने का फ़ैसला किया है। मुझे फ़ील्ड में अधिक समय की ज़रूरत होती है। इस तरह की मीटिंग मेरे और मेरे टीम के लिए बहुत मददगार साबित होती हैं। इन मुलाक़ातों में हम समुदाय की ज़रूरतों को समझते हैं और उन ज़रूरतों को पूरा करने के लिए युवाओं की मदद करने की कोशिश करते हैं।
शाम 4:00 बजे: जब मैं अपने दफ़्तर लौटता हूं तो उस समय वहां लोगों का जमावड़ा लगा होता है। यह एक आम दृश्य है क्योंकि शाम के समय ढ़ेर सारे युवा हमारे सलाहकारों से बात करने और उनसे अपनी समस्याओं पर चर्चा करने यहां आते हैं।
जब मैं छोटा था तब मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि मेरी जिज्ञासा और उत्सुकता को बढ़ावा दिया गया हो। स्कूल वह जगह थी जहां मुझे मेरे सभी सवालों के जवाब मिलने चाहिए थे लेकिन इसके बदले मुझे वहां ‘बातूनी’ या ‘परेशान करने वाला’ जैसी उपाधियां दी गई। इसलिए मैंने पीपल फ़ॉर चेंज के मुख्यालयों की कल्पना हमेशा एक ऐसी जगह के रूप में की है जहां लोग खुद से और दूसरों से ढ़ेर सारे सवाल-जवाब और पूछताछ कर सकें। यहां युवाओं का हमेशा स्वागत है और वे यहां आकर घूम-फिर सकते हैं, पढ़ाई कर सकते हैं और टीम के सदस्यों के साथ बातचीत करने जैसे काम कर सकते हैं। क्वीर और समाज के अन्य पिछड़े समुदाय के युवाओं के लिए एक सुरक्षित स्थान मुहैया करवाने से मैं भी उन मामलों को गहराई से समझने योग्य हो चुका हूं जो उनके लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। उदाहरण के लिए क्वीर युवाओं के लिए सबसे अधिक दबाव वाले मुद्दे स्वास्थ्य, आजीविका और रिश्ते हैं। वहीं आदिवासी युवाओं के लिए ज़मीन, जंगल और उनके अधिकार का मुद्दा महत्वपूर्ण है। इस प्रकार हमसे जुड़ा हर एक युवा किसी न किसी रूप में हमारी मदद करता है। ये युवा उनके लिए किए जाने वाले कामों और प्रयासों को बहुआयामी दृष्टिकोण से देखने में हमारी मदद करते हैं। उनसे मिलने वाली जानकारियों से हम अपने तरीक़ों को बेहतर बनाते हैं।
शाम 6:00 बजे: उस दिन का काम ख़त्म होने के बाद मैं दफ़्तर में ही थोड़ी देर आराम करता हूं। मैंने इस दफ़्तर को इस तरह बनाया है कि यहां काम करने वाले लोग यहीं आराम भी कर सकते हैं। उदाहरण के लिए हम नियमित रूप से ओपन-माइक और रात के समय गेम का आयोजन करते हैं। हमनें कुछ बिस्तरों का इंतज़ाम किया है। इससे पहले कि हमारी टीम एक जगह इकट्ठा होकर अगले दिन के काम पर चर्चा करे मैंने इस बिस्तर पर ही थोड़ी देर आराम करने का फ़ैसला लिया है। उसके बाद हमारा आज का दिन ख़त्म हो जाएगा।
रात 8:00 बजे: घर पहुँचने के बाद मैं जल्दी से रात का खाना खाता हूं और थोड़ी देर के लिए अपनी माँ के पास बैठता हूं। आमतौर पर दफ़्तर में बहुत व्यस्त रहने के बाद मैं घर पर काम नहीं करता। कभी-कभी रात के खाने पर अपने दोस्तों को घर बुला लेता हूं या जाकर सिनेमा देख लेता हूं। हालांकि सप्ताह के ज़्यादातर दिनों में मैं घर पर ही अपनी माँ के साथ या अपने कमरे में अकेला समय बिताता हूं।
रात 10:00 बजे: इन दिनों पढ़ रहे किताब के साथ मैं अपने बिस्तर की ओर जाता हूं। काम के बाद दिन के बचे इन कुछ घंटों में मैं अपने दूरगामी लक्ष्यों, उम्मीदों और अपने भविष्य निर्माण के बारे में सोचता हूं। मेरी तात्कालिक आशा ऐसी जगहों के निर्माण को आसान बनाना है जहां युवाओं और उनकी जिज्ञासाओं के लिए पर्याप्त साधन मिल सके। मैं चाहता हूं शैक्षणिक, कॉर्प्रॉट या पारिवारिक किसी भी तरह के वातावरण में युवाओं की आवाज़ को उन्हें प्रभावित करने वाले फ़ैसलों के संदर्भ में सम्मान के साथ सुना जाए। अंत में मेरा सपना युवाओं के नेतृत्व वाली एक ऐसी दुनिया है जो अधिक न्यायपूर्ण और प्यार से भरी हो।
जैसा आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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