राजस्थान में ऊंटों और रायका समुदाय पर आया संकट

रेगिस्तान मे ऊंटों के झुंड मे खड़े व्यक्ति _राजस्थान के ऊंट
राजस्थान के रायकों की कई पीढ़ियां ऊंट चराने का काम ही करती आई हैं। | चित्र साभार: अंसा ऑगस्टीन

बीकानेर जिले के ग्रांधी गांव में गनाराम रायका अपने 300 ऊंटों के बेड़े के साथ रहते हैं। राजस्थान के रायकों की कई पीढ़ियां ऊंट चराने वाली रही हैं। लेकिन, पिछले कुछ वर्षों में इसमें बदलाव आया है।

साल 2015 में राज्य के बाहर ऊंटों की बिक्री और निर्यात पर प्रतिबंध लगाने वाला एक कानून लागू किया गया। इस कानून के कारण स्थानीय ऊंट व्यापार में काफी गिरावट आई। राज्य में इस कानून के लागू होने के बाद से ऊंट व्यापारियों एवं चरवाहों के पास अपने मवेशियों की विशेष देखभाल का कोई कारण नहीं रह गया है। नतीजतन, कई व्यापारी और चरवाहे अपने मवेशियों को खुला छोड़ने पर मजबूर हो गये हैं, और कुछ ने तो अपने ऊंटों को यूं ही जंगल में भटकने के लिए छोड़ दिया है।

चूंकि ऊंट अब उनके लिए लाभदायक नहीं रह गये हैं, इसलिए गनाराम के गांव के कई अन्य रायका परिवारों ने आजीविका के लिए दूसरे पेशे चुन लिए हैं।

गनाराम स्वयं भी खेती करते हैं, लेकिन उनका प्राथमिक पेशा आज भी ऊंट चराना ही है, क्योंकि ऊंट उनकी संस्कृति और मान्यताओं का एक महत्वपूर्ण पहलू हैं। उनका कहना है इन पशुओं में उन्हें भगवान शिव दिखाई पड़ते हैं। अपने मवेशियों की देखभाल के अलावा गनाराम अन्य लोगों द्वारा उनकी देखरेख में छोड़े गए ऊंटों की भी देखभाल करते हैं जो अब उनका भरण-पोषण करने में सक्षम नहीं हैं। कभी-कभी, इस व्यवस्था में पैसों का लेनदेन भी शामिल होता है, जिसमें ऊंट मालिक गनाराम को उनकी सेवा के बदले में प्रति माह एक छोटी राशि देता है। लेकिन जब लोग उन्हें पैसे देने की स्थिति में नहीं होते हैं तब बिना किसी अतिरिक्त शुल्क के वे ऊंट गनाराम की झुंड का हिस्सा हो जाते हैं।

गनाराम अपने ऊंटों के विशाल बेड़े को अपने गांव के आसपास के बचे-खुचे चारागाह में लेकर जाते हैं। ऊंट चराने वाले अपने चरागाहों को गोचर, ओरण और पैठन जैसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं। ये नामकरण अलग-अलग क्षेत्रों – घास के मैदान, जंगल और जल जलाशयों का प्रतिनिधित्व करते हैं – जो उनकी देहाती जीवन शैली का अभिन्न अंग हैं। लेकिन जमीनों के क्षेत्रफल में तेजी से कमी आ रही है या फिर इनका पुनर्उपयोग किया जा रहा है। गनाराम परंपरागत रूप से जिस चरागाह भूमि पर निर्भर थे, उसका अधिकांश हिस्सा अब अवैध चूना पत्थर खनन के लिए उपयोग में लाया जाता है, जो क्षेत्र के लोगों को आजीविका प्रदान करता है।

गनाराम ने जहां खनन को रोकने के प्रयास किए, वहीं बकरी जैसे छोटे मवेशियों को पालने वाले चरवाहे, इन चारागाह के सिकुड़ते आकार को लेकर कुछ खास चिंतित नहीं हैं।

अत्यधिक गर्मी और सर्दी में मवेशियों को चराना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। ऐसी स्थिति में गनाराम अपने ऊंटों को चारा खिलाना शुरू कर देते हैं।

यह एक महंगा विकल्प है। उनका वित्तीय बोझ तब और बढ़ जाता है जब उनके मवेशी बीमार पड़ने लगते हैं और उन्हें इलाज की ज़रूरत पड़ती है। गनाराम जैसे चरवाहों की मदद के लिए सरकार ने प्रत्येक नवजात ऊंट बछड़े के लिए 15,000 रुपये का मानदेय तय किया है। लेकिन इस राशि का दावा करना मुश्किल है क्योंकि इसके लिए पशुचिकित्सक द्वारा जारी किया गया जन्म प्रमाण पत्र आवश्यक है, और राजस्थान के दूरदराज के क्षेत्रों में पशुचिकित्सक दुर्लभ हैं।

सरकार के समर्थन के बिना, राजस्थान में ऊंटों की आबादी तेजी से घट रही है। साल 2012 में ऊंटों की संख्या तीन लाख से अधिक थी जो 2019 में घटकर दो लाख से कम हो गई है। इसलिए पशुओं के संरक्षण के गनाराम के प्रयास भले ही सराहनीय हों, लेकिन इन प्रयासों को संस्थागत समर्थन की जरूरत है।

अंसा ऑगस्टीन एसबीआई यूथ फॉर इंडिया फेलो हैं, जो आईडीआर पर #जमीनी कहानियां के लिए कंटेंट पार्टनर हैं।

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ग्रामीण महिला कारीगर और डीमैट खाता: अब केवल अंगूठे के निशान से काम नहीं चलेगा

धन्नी बाई* ने बचपन में अपनी माँ और चाची से हाथ की कढ़ाई सीखी थी। कई सालों तक वह शौक़िया तौर पर कढ़ाई का काम करती रहीं और फिर 2007 में रंगसूत्र के लिए कढ़ाई वाली चीजें बनाने लगीं। रंगसूत्र एक कारीगर द्वारा चलाई जाने वाली शिल्प कम्पनी है। मौक़ा मिलते ही वह कम्पनी की शेयरहोल्डर भी बन गई। उसका शेयर प्रमाणपत्र उसके घर की दीवार पर परिवार के फ़ोटो के बगल में टंगा हुआ है। “यही एक ऐसा कागज़ है जिस पर मेरा नाम है… हम जिस घर में रहते हैं वह मेरे पति के नाम पर है और हमारी खेती वाली ज़मीन के मालिक मेरे ससुर हैं।” शेयरधारक बन जाने से धन्नी बाई जैसे कलाकारों को नियमित काम मिलने लगता है और साथ ही कम्पनी के लाभ में उनका हिस्सा भी तय हो जाता है। नियमित आय हो जाने से धन्नी बाई जैसे कारीगरों का उनके परिवार में आर्थिक योगदान भी होता है और उन्हें अपनी पहचान मिल जाती है।

रंगसूत्र के 2,000 ग्रामीण कारीगरों में सत्तर प्रतिशत महिलाएं हैं। इनके लिए यह एक चुनौतीपूर्ण स्थिति है विशेष रूप से जब बात अनुपालन की आती है। 2018 में पारित एक क़ानून में सार्वजनिक लिमिटेड कंपनियों के सभी शेयरों को डीमैटरियलाइज़ करने का प्रावधान लाया गया। सरल अर्थों में यह भौतिक शेयरों (सर्टिफिकेट) को इलेक्ट्रॉनिक शेयरों में बदलने की प्रक्रिया है। इसका सीधा मतलब यह है कि रंगसूत्र के सभी शेयरधारकों के पास डीमैट खाता होना अनिवार्य है। डीमैट खाता खुलवाने के लिए पैन और आधार कार्ड दोनों ही अनिवार्य होता हैं। धन्नी बाई जैसी ज़्यादातर गांव की औरतों के पास पैन कार्ड नहीं होता है। सीमित आय होने के कारण ये औरतें आय कर का भुगतान भी नहीं करती हैं। अधिकतर औरतें विशेष रूप से वृद्ध औरतें न तो अपना हस्ताक्षर कर सकती हैं और न ही लिख या पढ़ सकती हैं। हस्ताक्षर के बदले ये औरतें अंगूठे का निशान लगाती हैं। डीमैट खाता खुलवाने के लिए हस्ताक्षर अनिवार्य है और अंगूठे का निशान वैध नहीं होता है। इसलिए शेयर धारक के हस्ताक्षर वाला नया पैन कार्ड बनवाना ज़रूरी होता है। आधार सत्यापन प्रणाली में आवेदक के फ़ोन पर आने वाले ओटीपी (वन टाइम पासवर्ड) की ज़रूरत होती है। भारत के गांवों में अब भी ज़्यादातर औरतों के पास अपना निजी फ़ोन नहीं है। लब्बोलुआब यह है कि भारत की ग्रामीण महिला कारीगरों के लिए डीमैट खाता खुलवाना एक जटिल प्रक्रिया है। 

ज़्यादातर कारीगर निकट भविष्य में अपना शेयर नहीं बेचने वाले हैं। इसलिए कारीगरों के लिए शेयर से संबंधित किसी भी तरह का लेन-देन करने, लिक्विडिटी को सक्षम बनाने के लिए डीमैट खाता खुलवाना बहुत ज़रूरी है। इसकी जटिल प्रक्रिया को थोड़ी देर के लिए नज़रंदाज़ कर देखें तो यह भारत की कारीगर अर्थव्यवस्था को औपचारिक रूप देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिया गया है।

सुमिता घोष रंगसूत्र की संस्थापक और एमडी हैं। रंगसूत्र 200 मिलियन कारीगरों के साथ काम करती है और आईडीआर में #ग्राउंडअपस्टोरीज़ की कंटेंट पार्टनर संस्था है।

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अधिक करें: रंगसूत्र के काम के बारे में विस्तार से जानने के लिए सुमिता घोष से [email protected] पर सम्पर्क करें।