मैं मध्य प्रदेश भोपाल की निवासी हूं। मैंने जून 2024 में, यहां के एक कॉलेज से अपना मास्टर ऑफ सोशल वर्क (एमएसडब्ल्यू) पूरा किया है। अब जब मैं पढ़ाई ख़त्म करने के कुछ ही महीने बाद सामाजिक क्षेत्र के नौकरी बाजार में प्रवेश कर रही हूं तो मैं महसूस कर रही हूं कि हमारी शिक्षा हमें सेक्टर में काम करने के लिए ठीक तरह से तैयार नहीं कर पाई है।
शिक्षार्थियों के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती पाठ्यक्रम की फीस है। एमएसडब्ल्यू के दो साल की कुल फीस 30 हज़ार रुपए है जो अन्य कोर्सेज से दोगुनी है। उदाहरण के लिए समाजशास्त्र में मास्टर्स करने के लिए आपको दो साल में महज 12 हज़ार रुपए देने पड़ते हैं। इस कारण जहां समाजशास्त्र में 100 छात्र थे, एमएसडबल्यू में हम केवल आठ ही लोग थे। यह फीस जुटाना मेरे और मेरे जैसे और लोगों के लिए उतना आसान नहीं था। उस समय, मेरी एक प्रोफेसर ने मदद की और कहा कि वे वक्त पर फीस भर देंगी जिसे मैं बाद में लौटा दूं।
मेरा यह पाठ्यक्रम जन भागीदारी द्वारा भी संचालित था। जन भागीदारी पाठ्यक्रमों में अतिथि शिक्षकों द्वारा कोर्स पूरा किया जाता है। अतिथि शिक्षकों का चयन कोई विशेष भर्ती प्रक्रिया या पात्रता परीक्षा से नहीं होता है। ऐसे में, अतिथि शिक्षकों में अपने काम के लिए जवाबदेही या उसमें रुचि अक्सर स्थाई शिक्षकों की तुलना में कम ही देखने को मिलती है।
साथ ही, कॉलेज में एजुकेशनल टूर के लिए साधन सुविधाओं का अभाव भी एक बड़ा कारण था जिसने मुझे सोशल वर्क के व्यावहारिक ज्ञान की गहराइयों में जाने से वंचित रखा। हम हर सेमेस्टर में जो प्रोजेक्ट बनाते थे वह महज दो बार के एजुकेशनल टूर के आधार पर बनाया जाता था। कोर्स के दौरान दो सालों में, हमें केवल आठ फील्ड विजिट करवाई गई, वह भी सिर्फ एक या दो घंटे की होती थी। इसकी बड़ी वजह यह थी कि हमारे कॉलेज के पास अपनी बस नहीं थी। हमें कहीं भी जाना हो तो उसके लिए गाड़ियां बुक करनी पड़ती थीं जो एक निश्चित समय के लिए ही उपलब्ध हो पाती थीं। अंतर-विद्यालय (इंटर-स्कूल) एक्सचेंज प्रोग्राम की सुविधा भी हमें नहीं मिली जिससे हम दूसरे संस्थानों के प्रायोगिक कार्यों को देख-समझ सकते थे। इस क्षेत्र में काम करने के लिए हमें सबसे ज़्यादा यह समझने की ज़रूरत है कि समुदाय में काम कैसे करते हैं लेकिन फील्ड में न जाने से हम ये कौशल विकसित नहीं कर पाते।
आज जब हम कहीं नौकरी करने जाते हैं तो सबसे पहले अनुभव से जुड़े सवाल ही पूछे जाते हैं। लेकिन कॉलेज में ये सब सुविधाएं ना होने के कारण, हमें ना नौकरी नहीं मिल पाती है ना कोई अच्छा प्लेसमेंट। हम चाहते हैं कि हमें अंतर-विद्यालय एक्सचेंज प्रोग्राम की सुविधा भी मिले जिससे हमारे कॉलेज में प्लेसमेंट और नौकरी के अधिक अवसर आ सकें। मेरे कई दोस्त हैं जो डिग्री लेने के बाद आज भी बेरोजगार हैं।
मुझे कुछ मौके मिले लेकिन उन्हीं लोगों के जरिये जिन्हें मैंने अपना नंबर फील्ड दौरे के समय दिया था। लंबे समय तक इंटरनेट पर खोजते-खोजते मुझे एक फेलोशिप मिली जिसके लिए मैं दिल्ली गई। दिल्ली में मुझे नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा जैसे रिपोर्ट लिखने, समुदाय के साथ बात करने का कौशल मुझे काम करते हुए सीखना पड़ा। अगर मैंने कोर्स के दौरान फील्ड विजिट किए होते तो मेरे लिए यह सब करना आसान होता।
मैं अभी भी नौकरी खोज रहीं हूं। मैं इस सेक्टर में प्रवेश करने और लोगों के लिए काम करने के लिए उत्साहित थी। मेरी उम्मीद थी कि एमएसडब्ल्यू मुझे वहां पहुंचने में मदद करेगा लेकिन पूरी तरह से ऐसा नहीं हो सका। मुझे जो मौके मिले वे मेरी खुद की कोशिशों के चलते मिले हैं। आखिर में, इतना सब करने के बाद भी नौकरी मिलने में दिक्कत ही हो रही है।
शिवाली दुबे प्रवाह की फेलो रह चुकी हैं।
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मध्य प्रदेश के भोपाल जिले में रेलवे और जिला प्रशासन ने 22 दिसंबर 2022 को संयुक्त कार्रवाई करते हुए यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के समीप रेलवे की भूमि पर बने 250 अवैध मकानों पर बुलडोजर चला कर तोड़ दिया था। लेकिन इतना समय बीत जाने के बाद आज भी यहां रह रहे 153 परिवारों को विस्थापित नहीं किया गया है। इस कारण जिले के अन्नूनगर और श्रीराम नगर के लोग ठंड, बारिश और गर्मी में अपने मकानों के मलबे पर तिरपाल बांध कर रहने को मजबूर हैं। शेष परिवार यहां से पलायन कर शहर के दूसरे हिस्सों में चले गए हैं।
गैस पीड़ितों की समस्याओं पर काम कर रहीं भोपाल ग्रुप फॉर इनफार्मेशन एंड एक्शन की संचालक रचना ढिंगरा ने बताया की अन्नूनगर और श्रीराम नगर गैस और पानी पीड़ित रहवासियों की बस्ती है। गैस पीड़ित उन्हें माना जाता है जो साल 1984 में यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से निकली जहरीली हवा में सांस लेने के कारण पीड़ित हुए थे। पानी पीड़ित उन्हें माना जाता है जो भोपाल गैस त्रासदी के कई सालों बाद तक यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री परिसर की जमीन में दफन, जहरीले कचरे और फैक्ट्री के समीप बने तालाब के दूषित पानी का इस्तेमाल करने के कारण पीड़ित हुए हैं।
अन्नूनगर में रहने वाले रफीक कहते हैं, “14 महीने बीत चुके हैं, लेकिन हमें जमीन नहीं मिली। जब हमारा मकान तोड़ा जा रहा था, तब प्रशासन ने कहा था कि हमें मकान बनाने के लिए दूसरी जगह दी जाएगी। नगर निगम के कर्मचारियों ने हमें ये भी बताया की अगर हम पीएम आवास योजना के तहत किश्तों में दो लाख रुपये देंगे तो हमें योजना के अंतर्गत पक्का मकान मिल जाएगा। उस वक्त तहसीलदार ने हमें टोकन नंबर दिया था और कहां था कि दो-चार दिन में जगह बता देंगे, लेकिन इतने दिन बीत जाने के बाद भी आज तक हमारे नंबर का कोई अता-पता नहीं है। परिवार में मेरी पत्नी तीन बच्चे और मां हैं। एक साल से हम यहीं तिरपाल बांध कर रह रहे हैं। टोकन लेकर कई बार तहसील गए, मगर अब कोई कुछ नहीं बता रहा।”
इन बस्तियों में ज़्यादातर मुस्लिम और दलित समुदाय के लोग रहते हैं। पिछले एक साल से यहां लोग बिना बिजली, शौचालय और अन्य संसाधनों के अपने परिवार का पालन कर रहे हैं।
अन्नूनगर की एक और निवासी नजमा कहती हैं, “जब हमारे घर तोड़े जा रहे थे, तब हम चिल्लाते रह गए लेकिन किसी ने नहीं सुना। हमने तिरपाल और कपड़े बांधकर छत बना लिए है, लेकिन जब थोड़ी सी तेज हवा चलती है तो डर लगता है। तेज आंधी में कई घरों के टीन और तिरपाल उड़ जाते हैं। लेकिन हमारी परेशानी को ये अफसर क्या समझेंगे।”
अन्नू नगर में रहने वाले नजब खां ने बताया, “हम सभी परिवार यहां पिछले 30 सालों से रह रहे हैं लेकिन बावजूद इसके अब सभी के नाम वोटर लिस्ट से काट दिए गए हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में हम लोग वोट नहीं डाल सके। पहले तो प्रशासन ने हमें बेघर कर दिया और बाद में हमारा वोट डालने का अधिकार भी हमसे छीन लिया।”
गैस पीड़ित संगठनों ने जनवरी में जिला कलेक्टरेट पहुंचकर 153 परिवारों को विस्थापित किए जाने की मांग को लेकर धरना प्रदर्शन किया था। उस समय वहां पीड़ित परिवारों की सूची भी सौंपी गई थी। भोपाल जिला कलेक्टर ने पीड़ितों को आश्वासन दिया था कि इन्हें पीएम आवास एवं अन्य जगह पर विस्थापित कर दिया जाएगा, लेकिन उसके बावजूद भी अब तक एक भी परिवार को जगह नहीं मिल पाई है।
अंकित पचौरी, द मूकनायक की संपादकीय टीम का हिस्सा हैं।
यह एक लेख का संपादित अंश है जो मूलरूप से द मूकनायक पर प्रकाशित हुआ था।
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साल 2015 में शुरू हुई प्रधानमंत्री आवास योजना का लक्ष्य था कि साल 2022 तक भारत के शहरी और ग्रामीण इलाके के हर एक गरीब और झुग्गी-झोपड़ी में रह रहे परिवारों के पास अपना पक्का मकान होगा। लेकिन मध्य प्रदेश के भोपाल जिले के नगर निगम में लाखों लोग आज भी झुग्गी, झोपड़ियों में रहने के लिए मजबूर हैं।
भोपाल के विश्वकर्मा नगर झुग्गी बस्ती में बसे ज़्यादातर लोग दूसरे शहर से पलायन करके आए मजदूर हैं। आवास न होने के कारण उन्होंने खुद ही झुग्गियां बना ली हैं और अब इनमें रह रहे हैं। यहां के रहवासी मोहम्मद कासिम बताते हैं कि “हम यहां पिछले 20 सालों से रह रहे हैं। हमारी बस्ती में पानी, बिजली की समस्या है। दिन में बिजली की कटौती होती है और सिर्फ रात को ही बिजली मिलती है। किसी भी घर में शौचालय नहीं हैं। पिछले कई सालों से कहा जा रहा है कि सभी को पक्के मकान मिलेंगे। लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ। हमें सरकार के वादों पर भरोसा नहीं है।”
ऐसी ही स्थिति, बस्ती में रह रहे करीब एक हज़ार से भी ज़्यादा परिवारों की है। बस्ती के आसपास साफ-सफाई न होने के कारण भी उनका यहां रुकना मुश्किल है। घर में शौचालय न होने से रहवासी सार्वजनिक शौचालय का उपयोग करते हैं। इसके लिए उन्हें 80 रुपये प्रतिमाह का शुल्क देना होता है। सार्वजनिक शौचालयों में फैली गंदगी के कारण भी परेशानी होती है।
झुग्गी की निवासी ज्योति पंडित कहती हैं कि “यहां इतने छोटे घर हैं कि परिवार के साथ गुजर-बसर करने में परेशानी होती है। यदि रात को बच्चों को शौचालय की जरूरत पड़े तो पास के रेलवे स्टेशन रानी कमलापति जाकर शौचालय उपयोग करते हैं क्योंकि रात नौ बजे के बाद सार्वजनिक शौचालय बंद हो जाता है।”
नगर निगम के इलाके में करीब दो दर्जन झुग्गियां हैं, जो ज्यादातर 20 से 30 साल पुरानी हैं। इसके अलावा, जिले के बागमुगालिया क्षेत्र में नई झुग्गियां बनती जा रही हैं। कुछ झुग्गी परिवारों को नगर निगम ने प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत मल्टियों (बहुमंज़िला इमारतों) में शिफ्ट किया गया है। लेकिन उनकी कंस्ट्रक्शन गुणवत्ता खराब है। 2015 में बनी इंद्रा नगर स्थित एक मल्टी की हालत इतनी खराब है कि महज नौ वर्षों के भीतर ही बिल्डिंग का सीमेंट जगह-जगह से झड़ रहा है।
इंद्रानगर मल्टी की रहवासी संतोषी ने बताया कि, “यहां निगम के द्वारा साफ-सफाई का ध्यान नहीं रखा जा रहा जबकि आगे वाली कॉलोनियों में नियमित सफाई की जाती है। पिछले छह महीने से हमारा चेम्बर टूटा पड़ा है, पानी बाहर निकलने की शिकायत नगर निगम के अधिकारियों से करते चले आ रहे हैं, लेकिन कोई सुनने को तैयार ही नहीं हैं। हमारे साथ निगम प्रशासन भेदभाव कर रहा है।”
अंकित पचौरी, द मूकनायक की संपादकीय टीम का हिस्सा हैं।
यह एक लेख का संपादित अंश है जो मूलरूप से द मूकनायक पर प्रकाशित हुआ था।
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