राजस्थान में बैंकिंग घोटालों में इज़ाफ़ा क्यों हो रहा है?

फिंगर प्रिंट स्कैन कराती महिला_बैंकिंग घोटाला
सबसे आम धोखाधड़ी के तरीकों में से एक बायोमेट्रिक सत्यापन पूरा करवाना है जिसमें लोगों को धोखा देकर उनके पैसे निकाल लिए जाते हैं। | चित्र साभार: किशन गुर्जर

राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के कई गांवों में, बैंकिंग सेवाओं जैसे कि पैसे भेजना और निकालना अक्सर बिज़नेस कॉरेस्पोंडेंट्स (बीसी) के जरिए होता है। ये बीसी गांवों में दूसरे बैंकों की तरह काम करते हैं तथा लोगों को बैंकिंग सेवाएं मुहैया करवाते हैं। ऐसे लोग जिनके पास सीमित संसाधन हैं और स्मार्टफोन नहीं हैं, वही लोग आधार-सक्षम भुगतान प्रणाली (एईपीएस) के माध्यम से पैसे निकालने या भेजने के लिए इन कॉरेस्पोंडेंट्स के पास जाते हैं। बीसी, सत्यापन के लिए बायोमेट्रिक डेटा का उपयोग करते हैं।

हालांकि, आधार-सक्षम भुगतान प्रणाली के बारे में कम जानकारी और लोगों में वित्तीय साक्षरता की कमी होने की वजह से इस तरह की वित्तीय धोखाधड़ी के मामलों में भारी इजाफा हुआ है। लोगों ने बताया कि पैसों को निकालने के लिए बायोमेट्रिक सत्यापन पूरा करने वाली धोखेबाजी की घटनाएं आम हैं। असल में लोगों को यह बताया जाता है कि बैंक सर्वर डाउन है, लेकिन वास्तव में बीसी उनको बिना बताये ही उनके खाते से पैसे निकाल लेता है।

कर्दा गांव की रहने वाली 70 साल की रुक्मणी बाई* 10 हजार रुपये निकालने के लिए एक स्थानीय बीसी के पास गई थीं। निकासी की प्रक्रिया के लिए बायोमेट्रिक सत्यापन किए जाने के बाद, उन्हें बीसी ने बताया कि सर्वर काम नहीं कर रहे हैं, और यह कहकर उन्हें वापिस भेज दिया। रुक्मणी के पास फोन नहीं है, इसलिए उन्हें खाते के लेन—देन की जानकारी तभी मिलती है जब वह पासबुक अपडेट कराने के लिए बैंक जाती हैं। एक महीने बाद, जब रुक्मणी ने अपनी पासबुक अपडेट करवायी तो उन्हें पता चला कि उनके खाते से पैसे कट चुके हैं। बैंक से पूछताछ करने पर, उन्हें बताया गया कि चूंकि उन्होंने बायोमेट्रिक वेरिफिकेशन पूरा किया था, इसलिए अब बैंक कुछ नहीं कर सकता।

अगले एक साल के दौरान, रुक्मणी को गोगुंदा स्थित बैंक के मुख्य कार्यालय तक जाने के लिए अक्सर बस किराए पर पैसे खर्च करने पड़े। इन मामलों में कागजी कार्रवाई अक्सर जटिल होती है और लंबे समय तक खिंचती रहती है। क्योंकि बैंक प्रबंधन सभी जिम्मेदारियों से बच गया था, ऐसे में रुक्मणी को अपने मामले की जांच शुरू होने के लिए ही महीनों तक इंतजार करना पड़ा। जब बीसी के खिलाफ पुलिस केस दर्ज होने वाला था, तब रुक्मणी पर उसके गांव की पंचायत ने दबाव बनाया और उसे मामला छोड़ने के लिए कहा गया। चूंकि अधिकांश बीसी संपन्न हैं और उच्च जाति के परिवारों से आते हैं, इसलिए उनका गांव की राजनीति पर काफी प्रभाव है। रुक्मणी के लिए, बीसी के खिलाफ मामला आगे बढ़ाने का मतलब सामाजिक बहिष्कार था, और इसलिए उसने इसे आगे नहीं बढ़ाने का फैसला किया।

पूरे राजस्थान में ऐसी घटनाएं आम हो गई हैं।

वित्तीय साक्षरता की कमी जहां इन घोटालों की मुख्य वजह है, वहीं सबंधित अधिकारी भी इस तरह की स्थिति की जिम्मेदारी लेने से इंकार कर देते हैं। इसके कारण दिक्कतें और भी बढ़ जाती हैं। जब अधिकारी शामिल होते हैं, तब भी रुक्मणी जैसे कई पीड़ित जो वंचित जातियों से आते हैं, उन्हें डर रहता है कि अगर उन्होंने आवाज़ उठाई तो उन्हें गांव से बाहर निकाल दिया जाएगा।

किशन गुर्जर श्रम सारथी के ब्रांच सर्विस मैनेजर हैं।

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भूजल खेल: ग्रामीण राजस्थान में पानी बचाना सीखना

पिछले 50–60 सालों में राजस्थान के असिंद, करेर और कोटरी इलाक़ों में भूजल का स्तर 10 से 50 फ़ीट तक कम हुआ है। यह एक चिंता का विषय है क्योंकि इस इलाक़े की नब्बे प्रतिशत आबादी खेती करती है और अपने रबी फसलों की सिंचाई के लिए पूरी तरह से भूजल पर ही निर्भर है। 

तालाबों, झीलों और झरनों को अमूमन सामुदायिक सम्पत्ति माना जाता है लेकिन भूजल को आमतौर पर लोग निजी सम्पत्ति मानते हैं। लोग अपने-अपने ज़मीनों में कुएँ और बोरवेल गड़वातें हैं और उन्हें ऐसा लगता है कि वे जितना चाहे उतना पानी ज़मीन से निकाल सकते हैं। लोगों को यह मालूम ही नहीं है भूजल एक सार्वजनिक सम्पत्ति है और इसका इस्तेमाल ज़िम्मेदारी से किया जाना चाहिए। हालाँकि ‘पानी का एक खेल’ इस स्थिति को बदल रहा है।

पानी को बचाने वाले इस नए खेल को खेलने के लिए समुदाय के लोग 30 से 50 की संख्या में इकट्ठा होते हैं। इस खेल को गाँव के लोगों को योजनाबद्ध और सामूहिक रूप से भूजल के इस्तेमाल की महत्ता को बताने के लिए तैयार किया गया है। और साथ ही यह खेल लोगों को भूजल के इस्तेमाल और फसलों के पैटर्न के बीच के संबंध के बारे में भी बताता है।

इस खेल में पाँच खिलाड़ियों को एक साल में उपयोग करने के लिए या तो 50 बाल्टी पानी दिया जाता है या फिर उन्हें भूजल की एक इकाई आवंटित की जाती है। साथ ही उन्हें अपनी पसंद के फसलों का एक ऐसा सेट भी चुनना होता है जिसमें एक फसल में कम और दूसरी फसल में ज़्यादा पानी का इस्तेमाल होता है। फिर उन्हें इन फसलों की खेती करने के लिए कहा जाता है। खिलाड़ियों को भूजल के इस्तेमाल का पारस्परिक हिसाब-किताब इस तरीक़े से करना होता है—उन्हें ध्यान रखना पड़ता है कि सबको अपनी फसल की खेती के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी मिले, सबको लाभ हो। इन सबके अलावा उन्हें आगे आने वाले कई सालों के लिए पानी की बचत भी करनी होती है। संक्षेप में, उन्हें उपलब्ध भूजल की मांग और आपूर्ति का आकलन करने और सामूहिक रूप से पानी का बजट तैयार करने की ज़रूरत होती है।

खेल का संचालक इस खेल को 22 राउंड में संचालित करता है। पहले दो सत्रों में ग्रामीणों को खेल के नियम समझने में मदद की जाती है। अगले 10 राउंड तक खिलाड़ी दूसरे खिलाड़ियों को बिना अपनी पसंद की फसल की जानकारी दिए खेल को जारी रखते हैं। अंतिम 10 राउंड में खिलाड़ी एक दूसरे से फसलों के चुनाव और पसंद के बारे में बातचीत कर सकते हैं। हर राउंड के अंत में खिलाड़ियों को वर्षा जल का 7 यूनिट दिया जाता है जो इस्तेमाल न करने पर उन्हें अगले राउंड में मिल जाता था। बारिश न होने वाले कारक को ध्यान में रखते हुए दो पासों को फेंटा जाता था और पासों में आने वाली संख्या अगले राउंड में उपलब्ध पानी की इकाई को निर्धारित करता है।

खेल के अंत में खिलाड़ियों और खेल में हिस्सा न लेने वाले लोगों को खेल की जानकारी दी जाती है। संचालक खिलाड़ियों से कहता है कि वे दर्शकों के सामने अपने अनुभव साझा करें। इससे समुदाय के लोगों को अपने स्थानीय, जल से जुड़ी समस्याओं, सिंचाई की रणनीतियों और फसलों के चुनाव के बारे में बातचीत करने का मौका मिलता है।

इस खेल से समुदाय के लोगों ने आपस में जल बचाव के विषय पर बातचीत करनी शुरू कर दी है। लोग अब इस बारे में बात करने लगे हैं कि जल की बचत के लिए कौन से तरीक़े कारगर होते हैं। साथ ही वे अब जल की अधिक खपत वाली फसलों के बजाय कम जल में पैदा होने वाली फसलों (जैसे जौ और चना) की खेती की तरफ़ मुड़ने का विकल्प ढूँढने लगे हैं। 

फ़ाउंडेशन फ़ॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी ग्रामीण भारत में प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के क्षेत्र में काम करने वाली एक स्वयंसेवी संस्था है।

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सरकारी अधिकारियों की ग़लतियों का ख़ामियाज़ा आम आदमी क्यों भुगते?

मेरा नाम रतन लाल रेगर है। मैं राजस्थान के भीलवाड़ा जिले का एक सामाजिक कार्यकरता हूँ। मैंने 1998 से ही नागरिक समाज समूहों के साथ काम करना शुरू कर दिया था। उस समय मैं एक छात्र ही था। 

विभिन्न प्रकार की नौकरशाही बाधाओं के कारण कई सरकारी योजनाएँ और नीतियाँ हाशिए के समुदायों तक नहीं पहुँच पाती हैं। एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में मैं हमेशा इस काम के लिए प्रेरित रहता हूँ। मैं हमेशा ही सामाजिक वर्गीकरण के सबसे नीचले पायदान पर जी रहे लोगों तक इन लाभों को पहुँचाने का काम करता हूँ। मैं उनसे मिलता हूँ, उनकी समस्याओं को समझता हूँ और उन्हें सुलझाने के लिए एक उपयुक्त नौकरशाही चैनल को खोजने में उनकी मदद करता हूँ। एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सबसे ज़्यादा काम मैंने साल 2003-04 के दौरान दलित कार्यकर्ता भँवर मेघवंशी के साथ काम करके सीखा। मैं एक ऐसे आदमी के परिवार से मिलने गया था जो दुर्घटनाग्रस्त था, लेकिन उसके परिवार को इलाज के लिए वित्तीय दावा करने में संघर्ष का सामना करना पड़ रहा था। एक बार जब हमें समस्या मालूम हो गई उसके बाद मेघवंशी की मदद से हम अधिकारियों से मिलने गए। और उसके बाद उस परिवार को 80–90,000 रुपए की धनराशि मिली। इस अनुभव से मुझे इतनी ख़ुशी हुई कि इसके बाद मैंने सोचा कि क्यों न ऐसे और काम किए जाएँ। बहुत सारे ज़रूरतमंद लोग हैं लेकिन वे नहीं जानते हैं कि उन्हें अपनी समस्याओं को लेकर किसके पास जाना चाहिए। किस अधिकारी से बात करनी चाहिए, किस विभाग में जाना चाहिए; उन्हें सही रास्ता नहीं मालूम है। इस स्थिति को बदलने के लिए हम लोगों ने स्वयंसेवकों के एक समूह के रूप में काम करना जारी रखा। घटना के बारे में पता लगते ही हम पीड़ित परिवार से मिलने जाते थे।

अंतत: 2007 में मेघवंशी की मदद से मैं मज़दूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) से जुड़ गया। इस संस्था से जुड़ने के बाद मेरी मुलाक़ात निखिल देय, शंकर सिंह और पारस राम बंजारा जैसे सामाजिक कार्यकरताओं से हुई। 

अब एमकेएसएस ऐसे कई संगठनों में से एक ही जिनके साथ मैं काम करता हूँ। मैं फ़ाउंडेशन फ़ॉर एकोलॉजिकल सिक्योरिटी (एफ़ईएस) से भी जुड़ा हुआ हूँ और राजस्थान के गाँवों में विभिन्न स्तरों पर इस संगठन के काम करता हूँ। मेरा काम मुख्य रूप से सामान्य संसाधनों और टिकाऊ खेती के इस्तेमाल और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर जागरूकता फैलाने में मदद करना है। मैं प्रशासन गाँव के संग जैसे जागरूकता कार्यक्रमों में एफ़ईएस की मदद करता हूँ। यह केंद्र सरकार की एक वार्षिक पहल है जिसका उद्देश्य ग्राम समुदायों को पंचायत स्तर के पदाधिकारियों को जवाबदेह ठहराने की सुविधा प्रदान करना है। मैंने राजस्थान के विभिन्न जिलों में होने वाली जवाबदेही यात्रा में भी हिस्सा लिया है। जवाबदेही यात्रा राजस्थान के जिलों में आयोजित होने वाली एक ऐसी यात्रा है जिसमें राज्य में सामाजिक जवाबदेही क़ानून की माँग करने के लिए विभिन्न नागरिक समाज संगठन और संघ एकत्रित होते हैं। यह क़ानून आम लोगों को शिकायत करने, उनकी शिकायत के निवारण में हिस्सा लेने, उनकी शिकायतों का एक स्पष्ट समय सीमा के भीतर निवारण करने का अधिकार देगा। इस क़ानून के पारित होने के बाद अपने शिकायत के निवारण से असंतुष्ट होने पर आम आदमी अपनी शिकायत को अगले स्तर पर ले जा सकेगा। साथ ही वह सरकारी योजनाओं के सामाजिक लेखापरीक्षा (सोशल ऑडिट) का हिस्सा भी बन सकता है। इस क़ानून के लिए की गई पहली यात्रा 2015-16 में आयोजित की गई थी जिसकी अवधि 100 दिनों की थी। इसमें मैं सिर्फ़ एक दिन ही हिस्सा ले सका था। मेरी भागीदारी दूसरी यात्रा में थी जिसका निर्धारित समय 20 दिसम्बर 2021 से 2 फ़रवरी 2022 तक था लेकिन कोविड-19 के कारण उसे 6 जनवरी 2022 को स्थगित करना पड़ा। 

जवाबदेही सम्मेलन में एक श्रोता वहाँ के लोगों से बातचीत करते हुए-जवाबदेही यात्रा
हम नागरिकों की शिकायतों को दर्ज करने, उनपर नज़र रखने और तार्किक निष्कर्ष पर लाने के लिए हर जिले में शिकायत निवारण शिविर स्थापित करते हैं। | चित्र साभार: फ़ाउंडेशन फ़ॉर इकॉलॉजिकल सिक्योरिटी

सुबह 5.00 बजे: यात्रा के दौरान मैं सुबह जल्दी सोकर जागता हूँ। कर्मचारियों के समूह और आयोजकों के साथ चाय-नाश्ते के बाद रैली के रूट चार्ट के बारे में बात करता हूँ। स्थानीय अधिकारियों से अनुमति लेने के बाद हम लोग बैनर लगी गाड़ियों से राजस्थान के एक जिले के किसी ख़ास शहर में रैली निकालते हैं। यात्रियों से भरी गाड़ी एक दिन के लिए उस जगह पर रुकती है जहाँ हम लोग सभाओं का आयोजन करते हैं। इन सभाओं में समुदाय के सदस्य अपनी शिकायत दर्ज करते हैं और उसके बारे में बात करते हैं। 

इस साल मैं 4 जनवरी को भीलवाड़ा में रैली में शामिल हुआ था। पहले इस यात्रा में समुदाय के सदस्य बहुत बड़ी संख्या में हिस्सा लेते थे। विभिन्न जगहों पर लगभग 500-700 औरतें स्वेच्छा से इस रैली में हिस्सा लेती थी। इस बार कोविड-19 के कारण जारी निर्देशों की वजह से हमें अपनी संख्या 100 लोगों तक सीमित रखनी पड़ी। 

सुबह 10.00 बजे: मंगनीआरों और भील जैसी समुदाय के लोग नुक्कड़ नाटक और कठपुतली का प्रदर्शन करते हैं। वे समुदायों की समस्याओं और जवाबदेही क़ानून से जुड़ी जानकारियों से संबंधित जागरूकता फैलाने में मदद करते हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रम यात्रा का एक अभिन्न हिस्सा है क्योंकि इससे भीड़ आकर्षित होती है और आने-जाने वाले लोगों का ध्यान हमारी तरफ जाता है। जैसी सेना के पास अपनी ऊर्जा को बनाए रखने के लिए बैंड होता है, उसी तरह जवाबदही यात्रा के पास भी विभिन्न कार्यक्रमों का प्रदर्शन करने के लिए अपना एक बैंड है। ये लोग यात्रा शुरू होने से महीनों पहले कार्यक्रमों की तैयारी में लग जाते हैं। ये लोग विभिन्न समुदायों से आते हैं और कभी-कभी नाटक करने वाली जाति के लोग भी होते हैं। उदाहरण के लिए इस साल प्रदर्शन करने वाला समूह मंगनीआर समुदाय था। यह समुदाय अपनी आजीविका चलाने के लिए जैसलमेर क़िले पर गाना गाने का काम करता है।

सुबह 11.30 बजे: हम जहाँ भी जाते हैं वहाँ हमारा इरादा रैली को सभा में बदलने का होता है। सभा के शुरू होते ही स्वयंसेवक और समुदाय के सदस्य मंच पर चढ़कर जनता के सामने असंख्य समस्याओं के बारे में बोलना शुरू करते हैं। इन समस्याओं में पेंशन मिलने में होने वाली देरी, पानी की कमी और राशन मिलने में होनी वाली मुश्किलें भी शामिल होती हैं। भीलवाड़ा में मैं वक़्ता था। मैंने उन समस्याओं के बारे में बोला था जिन्हें गाँव-गाँव घूमकर लोगों से बातचीत करके मैंने इकट्ठा की थी। इनमें मनरेगा से जुड़े मामले भी थे जहाँ लोगों को आधार कार्ड से जुड़ी ग़लतियों के कारण पैसे नहीं मिले थे। 

हमारे जिले में लोग अब भी मनरेगा के संचालन को समझने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। मैं आपको कल की घटना के बारे में बता रहा हूँ। हम एक ऐसे निर्माण मज़दूर से मिले जिसका कहना था कि ग्रामीण रोज़गार योजनाओं का कोई मतलब नहीं है। यह सिर्फ़ पैसों को ठगने के लिए बनाया गया है। जब हमनें मामले की गहराई से छानबीन की तब हमें पता चला कि इस आदमी ने पाँच अलग जगहों पर काम किया था लेकिन बहुत कोशिशों के बावजूद उसे एक भी जगह से पैसा नहीं मिला। उससे लगभग आधे घंटे बातचीत करने के बाद हम मामले को स्पष्ट रूप से समझ पाए थे। उसने अधिकारी को अपने बैंक के खाते की एक प्रति दी थी लेकिन फिर भी उसे अभी तक पैसे नहीं मिले थे। 

मेरे गाँव में ही ज़मीन से जुड़ा एक अलग मामला था। इसके बारे में जानने से आपको नौकरशाही में होने वाली मनमानियों का अंदाज़ा लग जाएगा। एक आदमी की तीन बहनें और दो भाई थे और उनके पास ज़मीन का एकमात्र टुकड़ा था जिसके मालिक उसके पिता थे। पिता की मृत्यु के बाद क़ानूनी रूप से ज़मीन उसकी माँ और पाँचों भाई-बहनों को मिलना चाहिए था। लेकिन हुआ यह कि सरपंच या पटवारी ने ज़मीन के काग़ज़ में लड़कियों का नाम दो बार दर्ज कर दिया—एक बार पिता की बहनों के रूप में और एक बार पुत्री के रूप में। जब परिवार को इस दस्तावेज़ की नक़ल प्रति मिली तब उन्हें इसके बारे में पता चला। इसे ठीक करने के लिए मैंने पटवारी से बात की थी। उसका कहना था कि इसे ठीक करने के लिए कुछ पैसे लगेंगे और उसे अपने ऊपर के अधिकारियों को भी पैसे देने पड़ेंगे। जवाबदेही यात्रा के दौरान मैंने इस मामले को उठाया। अगर ग़लती ग्राम पंचायत या सरकारी अधिकारी की है तो लोगों को क्यों इसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़े?

दोपहर 12.30 बजे: हम नागरिकों की शिकायतों को दर्ज करने, उनपर नज़र रखने और तार्किक निष्कर्ष पर लाने के लिए हर जिले में शिकायत निवारण शिविर स्थापित करते हैं। राजस्व, मनरेगा और महिला उत्पीड़न से संबंधित शिकायतों जैसे विभिन्न श्रेणियों के मुद्दों के लिए अलग-अलग केंद्र हैं। इस साल अकेले मैंने ही 10 से अधिक शिकायतों पर काम किया है और जब मैं उनके पंजीकरण के लिए गया तब मेरे टोकन की संख्या 170 थी। इससे आप यात्रा में मिलने वाली शिकायतों की संख्या का अंदाज़ा लगा सकते हैं। 

शिकायतों को इनकी श्रेणी के अनुसार रजिस्टर में लिखा जाता है। उसके बाद हम लोग इन शिकायतों को आगे बढ़ाने के लिए एक प्रतिनिधिमंडल के रूप में उप-मंडल मजिस्ट्रेट (एसडीएम) या जिला कलेक्टर जैसे उपयुक्त अधिकारियों से मिलने जाते हैं। प्रशासन के लोग हमारी शिकायत लिखते हैं और हमें एक रसीद देते हैं। इस रसीद को हम समुदाय के सदस्यों को सौंप देते हैं। यात्रा के ख़त्म होने के बाद समुदाय के सदस्य इस रसीद के माध्यम से अपनी शिकायत से जुड़ी स्थितियों के बारे में पता लगाते रह सकते हैं। इस साल मैं भीलवाड़ा के उस प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा था जो अधिकारियों से मिलने गया था। बाद में एक शिकायतकर्ता को एक पटवारी के दफ़्तर से फ़ोन आया था, जिससे यह स्पष्ट होता है कि शिकायतों पर काम हो रहा है। 

शाम 4.00 बजे: इस समय तक हम लोगों का आज का काम ख़त्म हो चुका है। काम के ख़त्म होते ही हम लोग उस जगह के लिए निकल गए हैं जहाँ हम आज रात रुकेंगे। अब अगले दिन के काम के बारे में बात करने और उसे तय करने का समय है। संगीत के माध्यम से जागरूकता फैलाने का काम करने वाले लोग बैठ चुके हैं और अपने गीत और नारे लिखने का काम कर रहे हैं। मैं बैनर और पर्चियों से जुड़े काम करता हूँ क्योंकि मुझे पोस्टर डिज़ाइन के काम का अनुभव है। आप कह सकते हैं कि पर्चियों की डिज़ाइन मेरा शौक़ है। मैं जयपुर में डीटीपी संचालक के रूप में एक छापेखाने में काम करता था। लेकिन मैंने वह नौकरी छोड़ दी क्योंकि मेरे माता-पिता अब बूढ़े हो रहे हैं और मुझे अपने परिवार का ख़्याल रखना है। 

जब मैं यात्रा पर नहीं जाता हूँ तब अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए विभिन्न क़िस्म के काम करता हूँ। इसमें राजस्थान सरकार के ई-मित्र परियोजना में स्वयंसेवक के रूप में काम करना, विभिन्न संगठनों के लिए सुविधा देने वाले के रूप में काम करना और सरसों के खेत में किसान के रूप में काम करना भी शामिल है। 

जब आप लोगों के लिए काम करते हैं तब आपके पास रुकने या थमने का समय नहीं होता है।

रात 11.00 बजे: हम लोग आमतौर पर अपनी रातें धर्मशाला में बिताते हैं। यह जगह स्थानीय सदस्यों द्वारा यात्रियों के ठहरने के लिए तैयार की जाती हैं। अगर धर्मशाला उपलब्ध नहीं होता है तब उस स्थिति में हमें सस्ते होटल खोजने पड़ते हैं। दिन भर के काम के बाद मैं और मेरे सहयात्री थक चुके हैं लेकिन अभी अगला दिन आने वाला है। 

जब आप लोगों के लिए काम करते हैं तब आपके पास रुकने या थमने का समय नहीं होता है। शुरुआत में मेरा परिवार मेरे काम से जुड़े जोखिम से चिंतित था और उन्हें समझने में मुश्किल होती थी। अब मेरी पत्नी मेरी सबसे बड़ी ताक़त है, उसे अब मेरे काम का महत्व समझ में आता है। मेरे माता-पिता अब भी थोड़े डरे हुए हैं; उन्हें लगता है कि इस काम से गाँव के लोग मेरे दुश्मन बन जाएँगे। मैं उनका डर समझता हूँ। यही वही डर है जिसके कारण बहुत सारे लोग आगे आकर ख़ुद से अपनी शिकायत दर्ज नहीं करवाते हैं। इसी वजह से हम जैसे लोगों को उनके लिए पुल का काम करना पड़ता है। गाँव के लोगों को इस बात का डर है कि कहीं उनके पानी और बिजली की आपूर्ति ना काट दी जाए, जो एक अनसुनी घटना नहीं है।  

हालाँकि मैंने देखा है कि बदलाव हो रहे हैं। हमारे गाँव में कुल 500 घर हैं जिसमें विभिन्न समुदाय के लोग रहते हैं। जब हम, हमारे पिता या हमारे दादा लोगों के घर में चाय पीने जाते थे तब हमें अपना कप ख़ुद ही धोना पड़ता था। जाति से जुड़े भेदभाव के कारण हमें इन चीज़ों का सामना करना पड़ता था। अब हमें ऐसा नहीं करना पड़ता है। जैसा कि आप देख रहे हैं लोगों की मानसिकता बदल रही है। अपने काम के कारण मेरा अपना नज़रिया बदला है, ख़ास कर तब जब मैं मेघवंशी के साथ काम कर रहा था। मुझे याद है कि जब मैं छोटा था तब हम लोग उच्च जाति के लोगों, राजपूत जाति के किसी आदमी के सामने आने पर अपनी साइकल से उतर जाते थे। अब मुझे अपने अधिकारों के बारे में पता है। जैसा कि हम सही-ग़लत का अंतर समझकर अपने अधिकारों की माँग करते हुए अपनी लड़ाई जारी रख रहे हैं, मुझे पूरी उम्मीद है कि स्थिति बेहतर होगी।  

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