मेरी उम्र 39 वर्ष है और मैं उत्तर कर्नाटक के बेलगाम से आई हूँ। मैं बंगलुरु में गुड बिजनेस लैब (जीबीएल) के लिए एक गणनाकार (एन्यूमरेटर) के रूप में काम करती हूँ। मैं एक फील्ड कर्मचारी हूँ। लेकिन इसके अलावा मैं सर्वेक्षण का काम भी करती हूँ जिनसे मिले आंकड़ों का उपयोग विभिन्न प्रकार के अध्ययन और शोध में किया जाता है।
मैं जीबीएल में पिछले चार सालों से काम कर रही हूँ। लेकिन मेरा करियर लगभग 18 वर्ष पहले मेरी बेटी के जन्म के बाद ही शुरू हो गया था। 17 साल की उम्र में मेरी शादी एक बुजुर्ग आदमी से कर दी गई थी जो बहुत ही रोकटोक करने वाला और एक पितृसत्तात्मक सोच वाला व्यक्ति था। वह चाहता था कि मैं घर पर रहकर घर संभालने का काम करूँ, जो कि मुझे बिलकुल पसंद नहीं था। मैं नहीं चाहती थी कि मेरी बेटी भी मेरे जैसा जीवन जिये। मैं चाहती थी वह एक अच्छे अँग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ाई करे और उसका भविष्य बेहतर हो। इसलिए मैंने काम करने का फैसला किया। शुरुआत में मैंने एक स्थानीय स्कूल में शिक्षक के रूप में काम किया लेकिन वहाँ मुझे बहुत कम वेतन मिलता था। उतने पैसे में मैं अपनी बेटी को बेहतर शिक्षा नहीं दिलवा सकती थी। इसलिए मैंने एक गणनाकार के रूप में नौकरी शुरू कर दी।
मुझे बाहर जाने और काम करने में बहुत मजा आता था और अपने काम के क्रम में ही मैंने बहुत सारे दोस्त बना लिए। लेकिन जल्द ही मेरे परिवार ने इसका विरोध शुरू कर दिया। वह चाहते थे कि मैं काम छोड़कर अपने बच्चे के साथ घर पर रहूँ। हालांकि उनके दबाव में आकर मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी लेकिन मैं संतुष्ट नहीं थी। मुझे अपनी बेटी के सुरक्शित भविष्य के लिए पैसों की जरूरत थी। इसलिए मैंने टेलरिंग और कोस्मेटोलॉजी का प्रशिक्षण लिया और घर पर ही कपड़े सिलने और ब्यूटी पार्लर चलाने का काम शुरू कर दिया। छ: साल तक मैंने यह काम किया लेकिन तब तक मेरी बेटी सातवीं कक्षा तक पहुँच चुकी थी और मुझे उसकी पढ़ाई जारी रखने के लिए और अधिक पैसों की जरूरत थी। उस समय मैंने अपने गणनाकार दोस्तों से संपर्क किया जिन्होनें मुझे इस क्षेत्र में उपलब्ध अवसरों की जानकारी दी। मैंने तय कर लिया कि मैं अपने परिवार के मर्जी के खिलाफ भी काम करूंगी क्योंकि मैं जानती थी कि मेरी बेटी के भविष्य को सुरक्शित करने का यही एकमात्र तरीका था। मैंने अपनी बेटी को बेलगाम में अपने माता-पिता के पास छोड़ा और बंगलुरु आ गई। उस वक्त से ही मैं यहाँ विभिन्न संस्थाओं के साथ गणनाकार के रूप में काम कर रही हूँ।
सुबह 6.00 बजे: मैं सुबह जल्दी जागती हूँ ताकि मैं समय पर नाश्ता करके काम के लिए निकल सकूँ। बंगलुरु में यातायात की हालत बहुत खराब है जिसकी वजह से काम पर पहुँचने में मुझे एक घंटा से ज्यादा समय लगता है। पहले जब मुझे सर्वे के लिए अक्सर बाहर फील्ड में जाना पड़ता था तब मैं सुबह 4 बजे जागती थी और पूरे राज्य के विभिन्न जिलों तक जाने के लिए लंबी-लंबी बस यात्राएं करती थी। अगर रास्ते में कुछ मिल गया तो हम खा लेते थे; वरना अक्सर ही खाली पेट फील्ड में काम करते रहते थे और उम्मीद लगाते थे कि शायद कुछ खाने के लिए मिल जाए। गणनाकार के रूप में काम करने के शुरुआती सालों में किसी भी नई परियोजना की शुरुआत मुझे बेचैन कर देती थी। मुझे अपनी टीम और काम के माहौल को लेकर चिंता होती थी। एक औरत होने के नाते ऐसे भी बिना अनुमति के घर से निकलना हमारे लिए मुश्किल होता है। हमें इसकी चिंता भी होती थी कि हमारी टीम में पुरुष सहकर्मी तो नहीं होंगे क्योंकि पुरुष सहकर्मियों के साथ काम करने का अनुभव हमारा अच्छा नहीं रहा था। कुछ परियोजनाएँ कई दिनों या सप्ताह तक भी चलती थी और अक्सर हमारे रहने और खाने के इंतज़ामों के बारे में हम लोगों को कुछ भी पता नहीं होता था। मुझे याद है मैं पहली बार फील्ड में काम करने बीजापुर जिले में गई थी और वहाँ मैं और मेरे सहकर्मी रात 10 बजे तक बस स्टॉप पर खड़े रहे थे क्योंकि हमारे पास रात में रुकने के लिए कोई जगह नहीं थी। हम दोनों बाहर से आए थे और हमें रात में रुकने के लिए जगह मांगने में डर लग रहा था। संयोग से हम लोगों ने किसी तरह उस महिला से संपर्क किया जो बीजापुर में रहती थी और उससे पूछा की क्या हम लोग उसके घर एक रात के लिए रुक सकते हैं क्योंकि अगले दिन फिर से हमें फील्ड में जाना था। इस तरह की परिस्थितियाँ असामान्य नहीं थीं।
सुबह 9:30 बजे: मैं बेल्लंदूर के पास वाली इकाई पर पहुँचती हूँ जहां आज मैं काम करने वाली हूँ। जीबीएल के साथ मैं कपड़ा कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों का सर्वेक्षण करने के लिए विभिन्न परियोजनाओं पर काम करती हूँ। पूरे बंगलुरु में लगभग 20 ऐसे कारखाने हैं जिनके साथ हम लोग काम करते हैं और इसलिए मेरी रिपोर्टिंग वाली इकाई मेरे काम कर रहे परियोजना के आधार पर बदल सकती है।
हाल ही मेरी पदोन्नति गणनाकार से फील्ड विश्लेषक के रूप में हुई है इसलिए मैं एक समय में दो-तीन परियोजनाओं पर काम करती हूँ। और हर परियोजना का अपना समय और अपनी अलग जरूरतें होती हैं। आज मैं जिस परियोजना पर काम कर रही हूँ वह सुबह श्रमिकों की आँखों के स्वास्थ्य का अध्ययन करता है। इसके लिए हमें उस दूरी का माप लेना है जिस पर काम करते समय श्रमिक सुई पकड़ते हैं। शाम में मैं एक दूसरी परियोजना में लग जाऊँगी जिसमें कपड़ा कारखानों में काम करने वाले प्रवासी मजदूरों के अकेलेपन और सामाजिक अलगाव का अध्ययन है। इसके लिए हम लोगों को महिला श्रमिकों के छात्रावासों में जाना होगा और वहाँ रहने वाली महिलाओं का साक्षात्कार लेना होगा।
दोपहर 12:00 बजे: अपनी नई भूमिका में मुझे नए गणनाकारों के प्रशिक्षण और समर्थन का काम भी करना पड़ता है। मैंने देखा है कि परियोजना पर काम करने से पहले गणनाकारों को दिये जाने वाले प्रशिक्षण में आमतौर पर पूछे जाने वाले सवालों, सवालों के क्रम और सवाल करने के तरीकों के बारे में बताया जाता है। लेकिन इससे हमें अपने काम के मात्र 50 प्रतिशत हिस्से में ही मदद मिलती है—इसके अलावा हमें संचार और पारस्परिक कौशल की जरूरत होती है जिसे हमें खुद ही विकसित करना पड़ता है। जब हम साफ-साफ बात कर पाएंगे और लोगों को समझ पाएंगे तभी हमें वे निजी जानकारियाँ मिलेंगी जिनकी अक्सर हमें जरूरत होती है। हमारी समझ भी इस स्तर की होनी चाहिए कि हम लोगों से मिली जानकारियों के सही और गलत की जांच कर सकें। इस कौशल को विकसित होने में समय लगता है।
दोपहर 2:00 बजे: इकाई के साथ रहने पर दोपहर का खाना हमेशा ही दिया जाता है। हालांकि गणनाकार के रूप में काम करने के शुरुआती सालों में मुझे अपने दोपहर के खाने का इंतजाम भी खुद ही करना पड़ता था। कभी-कभी हम लोग इतने पिछड़े इलाके में होते थे कि पैसे होने के बावजूद हमें खाना-पानी कुछ नहीं मिल पाता था।
दोपहर के खाने के बाद मैं आराम करने घर चली जाती हूँ क्योंकि शाम को मुझे फिर से काम पर आना होता है।
शाम 5:00 बजे: मैं घर से उस हॉस्टल जाती हूँ जहां उस दिन के डाटा संग्रहण के लिए मुझे लड़कियों और महिलाओं से बात करनी है। मैं वार्डेन से बात करके उससे पूछती हूँ कि कितनी लड़कियां उपलब्ध हैं और उस आधार पर मैं गणनाकारों के बीच काम का बंटवारा करती हूँ। रात 8:30 बजे तक हम अपना काम ख़त्म करके घर की तरफ लौट जाते हैं।
पूरे दिन सर्वेक्षण का काम परेशानी भरा हो सकता है और हमारे काम में लॉकडाउन के आने से अलग तरह की चुनौतियाँ भी आईं। मैं सौभाग्यशाली थी कि मुझे कोविड-19 से जुड़ी परियोजनाओं का काम मिला था जिसके कारण महामारी के चरम में भी मेरे पास काम था। चूंकि गणनाकार फील्ड में नहीं जा सकते थे इसलिए उस दौरान उनमें से कईयों के पास काम नहीं था। महामारी के दौरान औरतों का सर्वेक्षण करना और अधिक मुश्किल हो गया था क्योंकि उनसे बात करने के लिए हमें उनके पतियों की अनुमति लेनी पड़ती थी। कई मामलों में हमें सुबह बात करने की अनुमति मिल जाती थी लेकिन फिर वे बाद में अपना इरादा बदल देते थे। कई मामलों में फोन करने के कारण वे हम लोगों पर चिल्लाने लगते थे। इन सबके कारण हमारे लिए हमारा काम करना बहुत कठिन हो गया था।
रात 9:30 बजे: घर पहुँचने के बाद मैं रात का खाना पकाती हूँ। उसके बाद फोन पर अपनी माँ और बेटी से बात करती हूँ। मैंने अपनी पूरी जमा पूंजी अपनी बेटी की पढ़ाई में खर्च कर दी है इसलिए मुझे अकसर चिंता होती है। मैं अब लगभग 40 साल की हो चुकी हूँ और मुझे इस बात की चिंता है कि बढ़ती उम्र के साथ मुझे फील्ड में काम मिलेगा या नहीं। मेरी बेटी मुझे आश्वस्त करते हुए कहती है कि मुझे चिंता करने की जरूरत नहीं। वह कहती है, “तुम चिंता क्यों करती हो? चिंता छोड़ दो। मुझे पढ़ाई करने दो और एक बार जब मैं अपने पैरों पर खड़ी हो जाऊँगी तब हम दोनों आराम से जिंदगी जिएंगे।” मैं उसे अच्छा करते देखना चाहती हूँ। मेरा सपना है कि वह डॉक्टर बने, और इसके लिए मैं कड़ी मेहनत कर रही हूँ। मुझे लगता है ऐसे लड़कियों का साथ देना चाहिए जो बाहर निकलकर काम करना चाहती हैं। मैं अक्सर उससे कहती हूँ कि उसके अपने पैरों पर खड़े होने के बाद वह मुझे घूमने लेकर जाएगी। चूंकि मेरी बेटी का नाम देवी माता के नाम पर ‘वैष्णवी’ है इसलिए मैं जम्मू और कश्मीर में वैष्णो देवी के मंदिर जाना चाहती हूँ।
रात 11:00 बजे: सोने जाने से पहले मैं अपने मैनेजरों को दिन भर के काम और घटनाओं की रिपोर्ट भेजती हूँ, खासकर के शाम की परियोजना की रिपोर्ट। हालांकि इस काम के क्षेत्र की अपनी चुनौतियाँ है लेकिन मुझे यह काम करना अच्छा लगता है क्योंकि मैं हर दिन नए लोगों से मिलती हूँ, उनसे बात करती हूँ और उनकी बात सुनती हूँ। इन बातचीत के कारण हमारे बीच जो संबंध बनता है उससे मुझे खुशी मिलती है।
शुरुआत में मेरे माता-पिता ने काम करने के कारण मुझे बहुत दुख दिए। मेरे पति की मृत्यु के बाद वे इस बात को लेकर चिंतित थे कि लोग क्या कहेंगे कि वे मेरी बेटी का पालन-पोषण कर रहे हैं और मैं दूसरे शहर में काम कर रही हूँ। लेकिन मैं अडिग थी और मुझे पैसों के लिए बिना किसी पर निर्भर हुए अपनी बेटी के लिए बेहतर जीवन चाहिए था। मेरी कड़ी मेहनत और पेशेवर उन्नति को देखने के बाद अब वे मेरे साथ हैं। अब मुझे उनके इस साथ को स्वीकार करने में संघर्ष करना पड़ता है क्योंकि यह तब नहीं था जब मुझे इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। मेरा पूरा ध्यान मेरी बेटी पर होता है जिससे मुझे काफी उम्मीदें हैं।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
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