मेरा नाम अटिबेन वर्सत है और मैं पहाड़िया (पांचाल) गाँव की रहने वाली हूँ। यह गाँव गुजरात के अरावली ज़िले के मेघराज प्रखंड में पड़ता है। मैं 2016 से वर्किंग ग्रुप फ़ॉर विमेन एंड लैंड ओनर्शिप के साथ पैरालीगल कर्मचारी के रूप में काम कर रही हूँ। यह संस्था महिलाओं को ज़मीन का मालिकाना हक़ दिलवाने के लिए आवश्यक प्रक्रियाओं जैसे लैंड रिकॉर्ड में उनका नाम जुड़वाने में मदद करती है।
लगभग 13 साल पहले मैंने मानव संसाधन विकास केंद्र के साथ मिलकर काम करना शुरू किया था। तब मैं बच्चों ख़ासकर लड़कियों के शिक्षा से जुड़े प्रोजेक्ट पर काम करती थी। लेकिन जब मुझे पता चला कि उन्हें महिलाओं के भूमि अधिकार जैसे मामलों में काम करने वाले लोगों की ज़रूरत है तो मैंने तुरंत इस पद के लिए अपना आवेदन दे दिया।
मुझे याद है कि मेरे दादा जी के गुजर जाने के बाद मेरी दादी को अपनी ही सम्पत्ति के काग़ज हासिल करने में बहुत अधिक परेशानी हुई थी। उनकी ऐसी हालत देखकर ही मैंने विधवा औरतों के साथ काम करने का फ़ैसला किया। हमारे समाज में अक्सर विधवाओं को उनकी सम्पत्ति से जुड़े अधिकारों से वंचित रखा जाता है क्योंकि उनके पास अपना अधिकार साबित करने के लिए किसी भी तरह का ठोस काग़ज या सबूत नहीं होता है। सम्पत्ति में अधिकार मिल जाने से विधवा औरतों को अपने बच्चों के पालन-पोषण और उनकी शिक्षा में आसानी हो जाती है। साथ ही उन्हें कई तरह के सरकारी लाभ भी मिलते हैं। इसलिए मेरा ज़्यादातर काम हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के तहत आता है जो महिलाओं को उनकी सम्पत्ति का अधिकार दिलवाता है।
अपने प्रशिक्षण में मैंने सीखा कि लैंड रिकॉर्ड को कैसे पढ़ा जाता है, इससे जुड़े क़ानून कौन से हैं और सम्पत्ति को लेकर किस तरह की गतिविधियों की आवश्यकता होती है और लैंड रिकॉर्ड क्यों महत्वपूर्ण है। इसी क्रम में मैंने यह भी जाना कि नौकरी से औरतों को एक निश्चित समय के लिए वित्तीय और आर्थिक सुरक्षा मिल है लेकिन सम्पत्ति के एक छोटे से टुकड़े पर भी उनका अधिकार उनके और उनके परिवार के भविष्य को सुरक्षित करता है।
सुबह 4.30 बजे: मैं सुबह जल्दी उठकर अपने मवेशियों को चारा देती हूँ और उनकी साफ़-सफ़ाई करने के बाद दूध दुहती हूँ। उसके बाद मैं घर की सफ़ाई, चाय और नाश्ता बनाने जैसे काम निबटाती हूँ। फिर मैं दोपहर के खाने का डब्बा तैयार कर अपने बच्चों को स्कूल भेजने के बाद कपड़े और बर्तन धोने का काम ख़त्म करती हूँ। इसके बाद मुझे परिवार के अन्य सदस्यों के लिए दोपहर का खाना भी पकाना होता है। सम्पत्ति के अधिकार से जुड़े कामों की मेरी समझ घर से ही शुरू होती है।
तब वे औरतें अक्सर मुझसे पूछती थीं कि “आप हमें ज़मीन के मालिकाना हक़ की महत्ता के बारे में बता रही हैं, लेकिन क्या आपका नाम आपके घर की सम्पत्ति वाले काग़जों पर है?” इसके बाद ही मैंने अपने पिता की सम्पत्ति के काग़जो पर अपना नाम जुड़वाया और यही प्रक्रिया अपने ससुराल में भी शुरू की। मेरे ससुराल में सम्पत्ति को लेकर कई तरह के विवाद हैं जो कुछ रिश्तेदारों के मृत्यु प्रमाण-पत्र खो जाने से और अधिक जटिल हो गए हैं। इसलिए अभी हम लोग दस्तावेज़ों पर किसी नए सदस्य का नाम जोड़ने से पहले मेरे ससुर और उनके बच्चों में सम्पत्ति के बँटवारे का काम कर रहे हैं।
इससे मुझे अपना ही उदाहरण देने में आसानी होती है। अब मैं अधिक आत्म-विश्वास के साथ औरतों को उनके अधिकारों के बारे में बताती हूँ। मैं उन्हें अपना फ़ोन नंबर देकर आती हूँ ताकि ज़रूरत पड़ने पर वह मुझे फ़ोन कर सकें या स्व भूमि केंद्र पर मुझसे मिलने आ सकें। स्व भूमि केंद्र में हम पैरालीगल कर्मचारी ज़मीन के मालिकाना हक़ से जुड़े मामलों में औरतों की मदद करते हैं और उन्हें उनके अधिकार दिलवाने के तरीक़े ढूँढते हैं।
दोपहर 12.00 बजे: इस समय अक्सर अपने काम की ज़रूरतों के अनुसार मैं स्व भूमि केंद्र या पंचायत के दफ़्तर या लोगों के बीच जाने के लिए निकलती हूँ। मेरे पास अपनी कोई गाड़ी नहीं है और बस-टेम्पो के आने जाने का समय भी तय नहीं होता है इसलिए मुझे एक जगह से दूसरी जगह पर पहुँचने में एक से डेढ़ घंटे का समय लगता है। मैं कई गाँवों में जाती हूँ और उनमें कुछ गाँव 10 से 15 किमी तो कुछ गाँव 20 से 25 किमी दूर होते हैं। पंचायत और तलाती (राजस्व अधिकारी) का दफ़्तर भी मेरे घर से 30 से 40 किमी दूर है। मैं एक दिन में कम से कम 30 से 40 किमी का सफ़र तय करती हूँ। इसके लिए मुझे कई बार बस और रिक्शा बदलना पड़ता है।
मेरी दिनचर्या उस दिन के काम पर निर्भर करती है। दफ़्तर शुरू होने के पहले कुछ घंटे मैं दस्तावेज़ों की जाँच में लगाती हूँ। औरतें अक्सर आकर मुझे अपनी समस्याएँ बताती हैं। मैं उन्हें विभिन्न तरह के काग़ज़ों जैसे सम्पत्ति के काग़ज, सतबारा उतारा (7/12 इक्स्ट्रैक्ट) और उनके पति के मृत्यु प्रमाण पत्र के बारे बताती हूँ। परिवार के सम्पत्ति पर अपना अधिकार हासिल करने के लिए औरतों को इन दस्तावेज़ों की ज़रूरत होती है। बिना मृत्यु प्रमाणपत्र के एक विधवा अपनी पारिवारिक सम्पत्ति पर अधिकार हासिल नहीं कर सकती है। मैं पंचायत के दफ़्तर जाकर इन औरतों के पतियों के मृत्यु प्रमाण पत्र के बारे में पूछती हूँ। अगर मृत्यु प्रमाण पत्र उपलब्ध नहीं होता है तब उस स्थिति में मुझे अन्य जानकरियाँ हासिल करनी पड़ती हैं—जैसे मृत्यु के समय उस व्यक्ति की उम्र, मृत्यु का वर्ष और मृत्यु का कारण। इन सूचनाओं के आधार पर पंचायत से एक दस्तावेज मिलता है जिसे लेकर ज़िला दफ़्तर जाना पड़ता है। इस प्रक्रिया के दो माह बाद मृत्यु प्रमाण पत्र मिलता है। प्रमाण पत्र के मिलने के बाद ही सम्पत्ति पर औरतों के अधिकार को हासिल करने की आगे प्रक्रियाएँ शुरू होती हैं।
अगर मृत्यु प्रमाण पत्र उपलब्ध होता है तब सतबारा उतारा जैसे दस्तावेज हासिल की प्रक्रिया आसान हो जाती है। गुजरात सरकार की एनीआरओआर नाम की एक वेबसाइट है। हम पैरालीगल कर्मचारियों को इस वेबसाइट के इस्तेमाल का प्रशिक्षण दिया जाता है। इसलिए हमें इस वेबसाइट से सतबारा उतारा जैसे काग़ज़ निकालना आता है और इसकी प्रति भी वैध मानी जाती है। लेकिन यह सिर्फ़ एक दस्तावेज है। बाक़ी के दस्तावेज़ों को जुटाने में बहुत ज़्यादा समय लगता है। जब सभी दस्तावेज उपलब्ध हो जाते हैं तब क़ानून के अनुसार भूमि स्वामित्व की आवेदन प्रक्रिया को पूरा होने में 70 से 90 दिन का समय लगता है।
दोपहर 3:00 बजे: औरतों के लिए भूमि से जुड़े अधिकारों पर काम करने के क्रम में सबसे बढ़ी बाधा लोगों की सोच होती है। आज की ही बात है मैं एक महिला के मामले को लेकर एक सरकारी कर्मचारी से मिली। उसने मुझसे कहा कि विधवाओं को सम्पत्ति का अधिकार हासिल करने के लिए क़ानून का सहारा लेने के बजाय दोबारा शादी कर लेनी चाहिए। विधवाओं के ससुराल वालों को यह चिंता सताती है कि अगर कोई विधवा दोबारा शादी करेगी तो सम्पत्ति पर उसके दूसरे पति का भी अधिकार हो जाएगा। उन्हें यह भी लगता है कि सम्पत्ति में हिस्सा मिल जाने के बाद वे घर का काम करना बंद कर देंगी या घर से भाग जाएँगी। नतीजतन ससुराल वाले इन विधवाओं को उनके माता-पिता के घर वापस भेज देते हैं। इसलिए मेरे काम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा ससुराल वालों को शांत करना और इसके पीछे के कारणों को समझने में उनकी मदद करना भी है।
आमतौर पर मैं विधवा के ससुराल वालों से बातचीत करके यह समझने का प्रयास करती हूँ कि कौन उसके सबसे नज़दीक है। मैं उन्हें सम्पत्ति पर इन औरतों के अधिकार की ज़रूरत के बारे में विस्तार से बताती हूँ। मैं उन्हें विश्वास दिलाती हूँ कि अगर वह घर से भाग जाएगी तो सम्पत्ति अपने साथ लेकर नहीं भागेगी इसलिए चिंता की कोई बात नहीं है। एक बार जब सास-ससुर इस बात को समझ जाते हैं तब वे घर के बड़ों से इस विषय पर बात करते हैं। आमतौर पर घर के ये बड़े सदस्य विधवाओं की मदद के ख़िलाफ़ होते हैं। जब घर के बड़े सदस्य आसानी से नहीं मानते हैं तो गाँव के मुखिया या सरपंच को उस विधवा औरत की ओर से परिवार वालों से बात करने के लिए कहा जाता है।
पिता या पति के जीवित रहते ही अगर औरतों का नाम सम्पत्ति के काग़ज़ों में जोड़ दिया जाए तो इस तरह की समस्याओं से बचा जा सकता है। हम लोग औरतों को इसके फ़ायदे बताते हैं। यहाँ अगर कोई औरत विधवा हो जाती है तो उसे सामाजिक नियमों के अनुसार एक महीने तक घर के अंदर ही रहना पड़ता है। मृत्यु प्रमाण पत्र की ज़रूरत और उसकी जानकारी के अभाव में आगे जाकर इन महिलाओं का जीवन कठिन हो जाता है। और अंत में अगर ये औरतें मृत्यु प्रमाण पत्र हासिल करने के प्रयास में लगती हैं तब उन्हें नोटरी शुल्क सहित कई तरह के ख़र्च उठाने पड़ते हैं। इन काग़ज़ी कार्रवाई को पूरा होने में बहुत समय लगता है और उन औरतों को इसके लिए महीनों इंतज़ार करना पड़ता है। इन सभी मुश्किलों से बचने का कोई रास्ता नहीं है।
शाम 4.30 बजे: आज गुरुवार है। आज के दिन तलाती को प्रखंड-स्तर वाले दफ़्तर में अनिवार्य रूप से बैठना पड़ता है। मैंने यह जानने के लिए दफ़्तर में फ़ोन किया कि वह उपलब्ध है या नहीं। उनके उपलब्ध होने की सूचना मिलने के बाद मैंने क्लर्क को बताया कि मैं कुछ औरतों को उनके दफ़्तर भेज रही हूँ। इसके बाद मैंने उन औरतों को बताया कि उन्हें कौन से ज़रूरी काग़ज़़ लेकर तलाती के दफ़्तर जाना है और साथ ही वहाँ जाकर उन्हें बताना है कि वे स्व भूमि केंद्र से आई है। स्पष्ट बातचीत ज़रूरी है क्योंकि तलाती मेघराज प्रखंड के पाँच गाँवों का प्रभारी है और उसके पास समय की कमी होती है। भूमि स्वामित्व प्रक्रिया में तलाती की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। गाँव में होने वाले जन्म और मृत्यु से जुड़े आँकड़ों जैसे 18 विभिन्न प्रकार के दस्तावेज़ों को सम्भालने की ज़िम्मेदारी तलाती की होती है। इसके अलावा वह इन दस्तावेजों को सत्यापित भी कर सकता है।
इन दिनों मैं सबसे अधिक कमजोर औरतों के साथ ही काम कर रही हूँ क्योंकि केंद्रों से आने वाले पैरालीगल कर्मचारियों ने तलाती दफ़्तर से अपना एक रिश्ता विकसित कर लिया है। इससे हमारा समय बचता है और हम एक दिन में ज़्यादा लोगों की मदद कर पाते हैं। जब से मैंने इस क्षेत्र में काम करना शुरू किया है तब से आज तक चीजें बेहतर हुई हैं लेकिन आज भी सरकारी कर्मचारियों के साथ काम करना बहुत मुश्किल है। वे अक्सर कई तरह के बहाने बनाते हैं जैसे आज हमारे पास फ़ॉर्म नहीं है, अगले सप्ताह आना” या कभी कह देते हैं कि “हमारे पास मुहर नहीं है बाद में आना।” उनके इन रवैयों से पूरी प्रक्रिया लम्बी हो जाती है और औरतों को भूमि का अधिकार मिलने में देरी हो जाती है।
रात 9.00 बजे: हालाँकि मैं शाम 6 बजे तक घर वापस लौट जाती हूँ लेकिन मुझे सभी काम ख़त्म करते करते बहुत देर हो जाती है। जब तक मैं घर लौटती हूँ बच्चे स्कूल से वापस आ चुके होते हैं और उन्हें भूख लगी होती है। घर का काम निबटाते निबटाते मैं उन लोगों से बातें करती हूँ, चाय और रात का खाना तैयार करती हूँ। ये सब करते-करते रात के 9 बज जाते हैं। यह समय मवेशियों को चारा देने और उनकी देखभाल करने का होता है। इन कामों में घर के लोग मेरी मदद करते हैं। जब मेरे पति जीवित थे तब मैं अपना ज़्यादा समय खेती के कामों में लगाती थी। अब मैं खेती का काम सिर्फ़ उन दिनों में ही कर पाती हूँ जब मुझे दफ़्तर नहीं जाना होता है। मवेशियों की देखभाल के समय में ही मैं अपनी भाभी से बातचीत भी कर लेती हूँ।
मेरे सास-ससुर के साथ मेरे संबंधों में बहुत उतार-चढ़ाव आए। शुरुआत में मैं जब दफ़्तर जाने लगी तब उनके मन में कई तरह का डर था। जब मैं काम और प्रशिक्षण के लिए अहमदाबाद और अन्य शहरों में ज़ाया करती थी तब वे कहते थे कि “ हमें नहीं मालूम कि यह ऐसा कौन सा काम करती है कि इसे घर से इतने लम्बे समय तक दूर रहना पड़ता है।” लेकिन जब मैंने परिवार के अंदर ही काम शुरू किया तो चीजें बदलने लगीं। उदाहरण के लिए, मैंने सबसे पहले अपने पति के दादी का नाम सम्पत्ति के काग़ज़ में जुड़वाया। हालाँकि इस काम को अंजाम देना मुश्किल था क्योंकि परिवार के सदस्य किसी भी तरह के काग़ज़ पर हस्ताक्षर नहीं करना चाहते थे। इसलिए मैंने सभी सदस्यों को कई-कई बार घर बुलाकर उनसे बातचीत की और उन्हें इसके फ़ायदे बताए। इससे उन्होंने मेरे काम का महत्व समझा। मेरे काम का परिणाम देखकर हमारे आसपास के लोगों ने भी इसमें रुचि लेनी शुरू कर दी। दिन भर का सारा काम ख़त्म करने के बाद मैं रात में लगभग 11 बजे बिस्तर पर जाती हूँ। बिस्तर पर लेटे-लेटे भी मैं अगले दिन के काम और अपनी दिनचर्या के अलावा उन लोगों के बारे में सोचती हूँ जिन्हें मेरे मदद की ज़रूरत है। अब मैं इस काम में इतनी कुशल हो चुकी हूँ कि अगर कोई बीच रात में जगाकर भी कुछ पूछे तो मैं उसे सही उपाय बता सकती हूँ।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
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