राजस्थान की ग्रामीण लड़की यूट्यूब का क्या करेगी?

मैं राजस्थान के अजमेर जिले में पड़ने वाले चाचियावास गांव से हूं। मेरी बड़ी बहन की शादी हो चुकी है और मेरा भाई दूसरे शहर में काम करता है। और इसलिए, पिछले कई सालों से घर के कामों के साथ-साथ मानसिक रूप से बीमार हमारी मां के देखभाल की ज़िम्मेदारी मेरे कंधों पर ही थी। हमारे गांव के नियम के अनुसार बीए तक की पढ़ाई करने वाली लड़कियों की भी शादी जल्दी कर दी जाती है। मुझसे भी यही उम्मीद की जा रही थी, लेकिन मैं ऐसा नहीं चाहती थी – मैं जानती थी कि मैं शादी करके खुश नहीं रह पाऊंगी। मैं अपना जीवन बनाना चाहती थी।

मैं हमेशा ही रचनात्मक थी और क्लास में बैठ-बैठे कपड़ों के डिज़ाइन बनाया करती थी। मुझे इस बारे में पता नहीं था कि डिज़ाइन भी एक पेशा हो सकता है, लेकिन जब मेरे शिक्षक ने मुझसे इसके बारे में बताया तब मुझे पता चला कि मुझे यह करके देखना चाहिए। मैंने यूट्यूब से फैशन डिज़ाइन की पढ़ाई शुरू की और यहां तक कि राष्ट्रीय फैशन प्रौद्योगिकी संस्थान (निफ्ट) की प्रवेश परीक्षा में भी सफल हुई। लेकिन एक लाख रुपये का प्रवेश शुल्क मेरी आर्थिक सीमा से बाहर की चीज थी और मैं अपना नामांकन नहीं करवा सकी। मैंने बीए कोर्स में भी अपना नाम लिखवाया लेकिन बाद में उसे छोड़ने का फैसला करना पड़ा क्योंकि मेरी प्राथमिकता पैसा कमाना था।

तभी मैं आईपीई ग्लोबल के प्रोजेक्ट मंज़िल से जुड़ गई, जो कौशल-आधारित प्रशिक्षण और नौकरी प्लेसमेंट की सुविधा प्रदान करता है। प्रोजेक्ट टीम के साथ अपने करियर से जुड़ी इच्छाओं पर चर्चा करने के बाद, मैं जयपुर शहर चली गई और वहां एडब्ल्यूएस सर्टिफ़िकेशन पूरा किया जो एक क्लाउड कंप्यूटिंग कोर्स है।

शुरुआत में यह कोर्स मेरे लिए चुनौतीपूर्ण था क्योंकि मेरे पास कंप्यूटर चलाने का अनुभव नहीं था। मैं इसे चालू करना भी नहीं जानती थी। लेकिन धीरे-धीरे, मैंने सीखा और बेहतर होती गई, और कोर्स के अंत में मुझे जयपुर में ही नौकरी मिल गई।

मेरे लिए अपने माता-पिता को यह बात समझाना मुश्किल था कि मैं आर्थिक रूप से स्वतंत्र क्यों होना चाहती थी। जब मैंने घर छोड़ने का फ़ैसला लिया तब मेरे पिता बहुत दुखी हो गये थे। मेरे ना रहने पर मेरे हिस्से का सारा काम उन्हें ही करना पड़ता था – घर के कामों की ज़िम्मेदारी से लेकर मेरी माँ की देखभाल तक। उन्होंने कुछ महीनों तक मुझसे बात भी नहीं की। लेकिन, समय के साथ मेरे परिवार ने मेरे फ़ैसले को स्वीकार कर लिया। हालांकि मेरे पड़ोसी अब भी इस बात के लिए उन्हें ताने देने से नहीं चूकते हैं। मैं घर के खर्चों में मदद के लिए अपने पिता को पैसे भी भेजती हूं।

घर छोड़ने का फैसला मेरे लिए भी आसान नहीं था; शुरुआत में, मैं बहुत डरी हुई थी। लेकिन मुझे यह मालूम था कि मैं अपने इस सुरक्षित खांचे से बाहर निकलना चाहती थी। जयपुर जाने के बाद मैंने एक कमरा किराए पर लिया और अब मैं अपना सारा काम – अपने लिए खाना पकाने से लेकर अपना सारा खर्च उठाने तक – खुद ही सम्भालती हूं। मेरा आत्मविश्वास बढ़ा है। कुछ-कुछ समय पर मैं अपने घर भी जाती हूं। एक तरह से, मैं और मेरे पिता, हम दोनों इस नई परिस्थिति के अनुसार ढल चुके हैं।

अब मैं एक स्थायी नौकरी में हूं और मुझ पर – अपनी और मेरे माता-पिता दोनों की – आर्थिक जिम्मेदारियां भी हैं। ऐसे में फैशन डिज़ाइन के क्षेत्र में वापस लौटने या उसकी पढ़ाई का खर्च उठाने की मेरी उम्मीद धुंधली पड़ती जा रही है। हालांकि, मैं हार ना मानने का पक्का इरादा किया है। इसलिए, मैं ऐसे प्रयास करती रहती हूं जिससे कि अलग से कुछ पैसे कमा सकूं। कभी-कभी मैं ओवरटाइम भी करती हूं। हाल ही में, मैंने अपनी कमाई का एक छोटा सा हिस्सा एसआईपी में भी निवेश करना शुरू किया है। इसके अलावा मैं यूट्यूब से शेयर बाज़ार में ट्रेडिंग के तरीक़े भी सीख रही हूं। तकनीक के साथ मेरे काम के कारण अब मैं इंटरनेट की पेचीदगियों को समझने लगी हूं, जिसमें अधिकतम हिट वाले और समझने में आसान कंटेंट बनाने वाले सही कंटेंट क्रिएटर को चुनना शामिल है। मैं ट्रेडिंग की जटिल अवधारणाओं को ठीक से समझने के लिए ऑडियोबुक भी सुनती हूं। मैं एक अच्छे ऑनलाइन सर्टिफिकेट कोर्स की भी तलाश में हूं और मैंने अपनी डिग्री पूरी करने के लिए बीए कोर्स में नामांकन भी करवाया है। जयपुर आने के बाद से मैंने अपने भीतर एक बदलाव महसूस किया है और मैं सोचती हूं कि काश मुझे अपना खोया हुआ समय वापस मिल जाता।

दीपा शारदा राजस्थान के जयपुर में काम करती हैं।

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कबीर को जीना: संस्कृति और परंपरा को सामाजिक बदलाव तक बढ़ाना

भारत में प्राचीन काल से ही जाति समुदायों की एक पहचान रही है। यह पहचान शायद उनके काम से थी और उनकी आजीविका का साधन भी थी। लोग चाहे उस काम से खुश हों या न हों, उनको वह काम करना ही पड़ता था (या अभी भी करना पड़ता है, नहीं तो सामाजिक दंड दिया जाता है)।

मैं भी एक ऐसी ही जाति – भाट/भांड से आता हूं जो मध्य-राजस्थान में बसती है। भाट/भांड समुदाय का जातिगत काम कविता करना था। इस जाति को जाचक, ढोली और अन्य नाम भी दिए गए हैं। इनका काम आगे चलकर जजमानों के यहां होने वाले शादी-विवाह जैसे मांगलिक कार्यक्रमों में ढोल बजाना भी बना। 

हमारे समुदाय के कुछ लोग अब यह काम छोड़ चुके हैं, कुछ आज भी कर रहे हैं, और कुछ ने इसका स्वरूप बदल दिया है। इसके अनेक कारणों में सबसे बड़ा कारण रहा है – जातिवाद। ऐतिहासिक तौर पर कलाकार समुदाय से होते हुए भी मैं ग्रामीण संस्कृति और सामाजिक बदलावों को जोड़ने के क्षेत्र में आया। 

मैंने भजन और संघर्ष के गीतों को गाकर, अपनी कला में बदलाव किया है। यह लोगों को जागरूक करने और उन्हें अपने हक-अधिकारों के लिए लड़ने में प्रेरित करने वाला रहा है। 

मेरे दो हमउम्र साथी – कार्तिक और ईश्वर, मेरी ही तरह गांव से आते है और संस्कृति, संगीत और कला में रुचि रखते हैं। इन दोनों का जातिगत काम खेती-किसानी था। कलाकार जाति का न होते हुए भी इनको गांव-गांव जाकर ढोल बजाने और गाना गाने में कोई झिझक नहीं है।

हम कोशिश करते हैं कि मीरा, कबीर, रूपा दे, रामसा पीर आदि के विचारों को आज के परिप्रेक्ष्य में रख सकें। युवा, भजन गाने की तरफ कम आते हैं। इसलिए हमारे इस तरीके से प्रभावित होकर, लोगों ने गांव की चौकी (मारवाड़, पाली) में हमें भजन गाने के लिए बुलाया। 

कबीर भगवान को निर्गुण मानते थे। अपने भजन ‘तू का तू’ में वे कहते हैं: 

“इनका भेद बता मेरे अवधू, साँची करनी डरता क्यों,
डाली फूल जगह के माही, जहाँ देखूं वहां तू का तू।”

इसका मतलब है कि भगवान हर जगह हैं, आप में, मुझ में, पत्ते में, डाली में। इसी भजन में कबीर आगे कहते हैं:

“चोरों के संग चोरी करता, बदमाशों में भेड़ो तू,
चोरी करके तू भग जावे, पकड़ने वाला तू का तू।” 

इसका मतलब हुआ कि भगवान जब सब में हैं तो एक चोर में भी है, और जब वो चोर चोरी करके भाग जाता है तो उसे पकड़ने वाले में भी भगवान ही हैं। 

कुछ लोग इसका असल मतलब नहीं समझे और उन्हें लगा कि यह भजन भगवान को चोर कहता है। उन्हें यह पसंद नहीं आया और उन्होंने विरोध किया। हमने लोगों को इस दोहे का असल मतलब समझाया कि भगवान हर जगह हैं। तब उन्होंने हमारा साथ दिया। कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्होंने भजन का मतलब खुद से समझा और विरोध करने वालों को समझाने में हमारी सहायता की। लोग कबीर, मीरा, बुल्ले शाह आदि के शब्दों को नकार नहीं सकते क्योंकि ये सभी इन इलाकों से ही हैं।  

महिलाएं भी पितृसत्ता के कारण मंडली में शामिल नहीं होतीं थीं। उन्होंने भी हमारी मंडली में भाग लिया क्योंकि हम गीत के शब्द समझाते हैं और लैंगिक भेदभाव के ख़िलाफ़ भी बोलते हैं।  

इस तरह यह हमारा सांस्कृतिक माध्यमों के जरिए लोगों को अधिकार और समानता, प्यार, करुणा, सद्भावना से परिचित करने का एक तरीक़ा है। 

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कैसे एक स्कूटर सवार पितृसत्ता को पीछे छोड़ रही है

मैं अजमेर, राजस्थान के श्रीनगर ब्लॉक की रहने वाली हूं। यहां, अपने पति के गांव हाथीपट्टा मैं दुल्हन बनकर आई थी। मुझे याद है कि जब हम गांव पहुंचने वाले थे, तब मुझसे कहा गया कि मैं पिकअप ट्रक से उतर जाऊं। उस जगह से गांव की सीमा तक पहुंचने के लिए हमें लगभग एक किलोमीटर पैदल चलना पड़ा था। उस समय रात के लगभग 8 बजे थे। मुझे यह सब कुछ थोड़ा अटपटा लगा लेकिन मैंने उस समय कुछ भी नहीं कहा।

बाद में मेरी भाभी ने मुझे बताया कि गांव की सभी औरतें ऐसा ही करती हैं। मोटरसाइकल या रिक्शा से सवारी करते समय भी उन्हें उतरना पड़ता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वे गर्भवती हैं या बीमार हैं या फिर बुजुर्ग। सभी महिलाओं को गांव आने के लिए लगभग एक किलोमीटर पैदल चलना ही पड़ता है। भाभी ने बताया कि सभी महिलाएं ऐसा इसलिए करती हैं क्योंकि कई सदी पहले एक बाबा ने गांव वालों से कहा था कि यहां की सभी महिलाओं को गांव आते-जाते समय पैदल ही चलकर जाना चाहिए। समय के साथ लोगों ने इस बाबा को ईश्वर जैसा सम्मान देना शुरू कर दिया और उनके नाम का एक मंदिर भी बनवा दिया।

कई सालों तक धर्म के नाम पर मैंने भी इस असुविधा को झेला। लेकिन साल 2019 में काम के सिलसिले में मैं कोरो (CORO) नाम की एक समाजसेवी संस्था से जुड़ी। यह संस्था महिलाओं के खिलाफ हिंसा को बढ़ावा देने वाली सामाजिक रीतियों को बदलने के लिए काम करती है। मेरे लिए गांव से आना-जाना बहुत ही मुश्किल हो चुका था। इसलिए मैंने अपने पति को समझा कर उनसे एक स्कूटर ख़रीदवा लिया। लेकिन जैसा कि गांव की प्रथा थी मेरे पास गांव में स्कूटर चलाने की अनुमति नहीं थी। तभी मैंने सोचा कि मुझे महिलाओं के साथ भेदभाव वाले इस सदियों पुरानी प्रथा को बदलने के लिए कुछ करना होगा।

पहली बार तो मैं स्कूटर को घसीटते हुए गांव में घुसी, फिर मैंने उसे छोड़ने और नीचे गिरने का नाटक किया। मैंने अपने घरवालों से कहा कि इस स्कूटर का वजन बहुत अधिक है। तब से गांव से बाहर जाते समय और गांव में प्रवेश के समय स्कूटर को लेकर आने-जाने की ज़िम्मेदारी मेरे पति के कंधों पर आ गई। एक महीने के अंदर ही वे इस काम से ऊब गए और मुझे मेरा स्कूटर थमा दिया। लेकिन मेरे आसपास के परिवारों को अब भी ऐसा लग रहा था कि मैं भगवान के ख़िलाफ़ जा रही हूं। इसलिए मैंने अपनी योजना में कुछ बदलाव किए और मदद के लिए हथाई (सार्वजनिक जगह जहां पर लोग पंचायत के लिए नियमित रूप से इकट्ठे होते हैं) पर बैठे पुरुषों को कहना शुरू कर दिया। जैसा कि उम्मीद थी वे भी हर दिन मेरे बुलाए जाने से और मेरी मदद करने से थकने लगे।

जल्द ही, मुझे गांव के अंदर और बाहर दोनों ही जगहों पर स्कूटर चलाने की अनुमति मिल गई। और ऐसा करने वाली मैं पहली महिला थी। अब बाकी महिलाएं भी गाड़ियों से ही आना-जाना करती हैं। लेकिन वे अब भी दूसरों से छिपकर रात के समय में ही ऐसा करना पसंद करती हैं।

सुनीता रावत एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। सुनीता विभिन्न असमानताओं को दूर करके और संवैधानिक मूल्यों की वकालत करके एक न्यायपूर्ण समाज के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध हैं।

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