बीते एक दशक में भारत का सोशल सेक्टर उल्लेखनीय रूप से विकसित हुआ है। अब अपेक्षाकृत कमजोर तबकों की मदद और राष्ट्र-निर्माण, दोनों ही क्षेत्रों में स्वयंसेवी संस्थाओं की भूमिका को पहचाना जाने लगा है। इसके बावजूद स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए आर्थिक मदद हासिल करना (फंडरेजिंग) अब भी एक बड़ी चुनौती है। स्वयंसेवी संस्थाओं की तमाम मुश्किलों और पूंजी जुटाने की जटिलताओं सरीखी दो वास्तविकताओं पर गौर करें तो यह कहा जा सकता है कि किसी समाजसेवी संगठन को सफलतापूर्वक चलाने के लिए धन इकट्ठा करना सबसे जरूरी चीज है।
स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए धन इकट्ठा करने की ज़िम्मेदारी उठाने वाले यानी एक फंडर (दानदाता) के रूप में हमें कई ऐसे अग्रणी संगठनों के साथ काम करने का मौक़ा मिला जो भारतीयों की सबसे बड़ी मुश्किलों को हल करने के लिए काम करते हैं। बीते एक दशक में धन इकट्ठा करने के लिए हमने 100 से भी अधिक स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ काम किया। इसी दौरान हुए अपने कुछ उल्लेखनीय अनुभवों को हम यहां साझा कर रहे हैं।
हाल के सालों में समाजसेवी संगठन और इन्हें चलाने वाले धन इकट्ठा करने को काम के अनिवार्य हिस्से की तरह स्वीकारने लगे हैं। इन्होंने इसे अपने कार्यक्रम के उद्देश्य की तरह ही केंद्र में रखना शुरू कर दिया है। इनके लिए अब यह ‘मुख्य काम’ से भटकाव नहीं है। समाजसेवी कार्यकर्ता अब यह समझते हैं कि इस काम को भी समय देने और इसमें ध्यान लगाने और सक्रिय रहने की ज़रूरत है। इसलिए धन इकट्ठा करने वाली किसी टीम की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि वह उद्यमी, अपने लक्ष्य के प्रति जुनूनी और अपने संगठन का सही तरीके से प्रतिनिधित्व करती हो। स्वयंसेवी संस्थाओं के शुरुआती चरण में संस्थापकों को अपना 40–50 फ़ीसदी समय धन इकट्ठा करने में और संगठन में इसकी संस्कृति विकसित करने में लगाने की ज़रूरत पड़ सकती है।
एक बढ़िया फंडरेजिंग टीम निस्संदेह सबसे अच्छे शुरुआती निवेशों में से एक है जो एक स्वयंसेवी संस्था कर सकती है। फंडरेजिंग टीम के उद्देश्य संगठन के अपने विकास लक्ष्यों के अनुरूप और उससे आगे होने चाहिए। धन इकट्ठा करने की व्यवस्था को ‘उद्देश्य के लिए उपयुक्त’ होना चाहिए। यानी कि इसे संस्थान की स्थिति, क्षमता और उसके उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए तैयार किया जाना चाहिए।
शुरुआती चरण में आमतौर पर संस्थापक ही धन इकट्ठा करने की ज़िम्मेदारी उठाते हैं।
आज स्वयंसेवी संस्थाओं के सामने धन इकट्ठा करने के सेटअप के कई विकल्प मौजूद हैं जिन्हें वे अपनी आवश्यकता के अनुसार चुन सकते हैं। शुरुआती चरण में आमतौर पर संस्थापक ही धन इकट्ठा करने की ज़िम्मेदारी उठाते हैं। नज फ़ाउंडेशन जैसे कुछ संगठनों के पास केवल धन इकट्ठा करने का ही काम करने वाली एक अलग टीम है। वहीं, प्रथम जैसे संगठन किसी कार्यक्रम के लिए धन इकट्ठा करने से लेकर उसके उद्देश्य को पूरा करने तक का काम एक ही व्यक्ति या टीम को दे देते हैं। इसके अलावा, स्वयंसेवी संस्थाएं बाहरी सहयोगियों का लाभ उठा सकती हैं—जैसे कि वे दसरा और संहिता जैसे संगठनों या व्यक्तिगत स्तर पर काम करने वाले सलाहकारों की मदद ले सकती हैं। ये सहयोगी उच्च आय वर्ग वाले लोगों (हाई नेट वर्थ इंडीविजुअल) और सीएसआर फंड से पूंजी जुटा सकते हैं। बीते कुछ सालों में आईएलएसएस और आईएसडीएम जैसे संस्थान धन इकट्ठा करने में कुशल लोगों को संस्थानों तक पहुंचाने लगे हैं जो इस सेक्टर के लिए अच्छी बात है। कुछ संगठन तो धन इकट्ठा करने के लिए सामुदायिक रिश्तों का लाभ भी उठाते हैं। उदाहरण के लिए जन साहस ने देशभर में समुदाय आधारित ऐसे 12 संगठनों को शामिल किया है जो मिलकर धन इकट्ठा करने का काम करते हैं, और अब उनकी कुल फ़ंडिंग का लगभग आधा हिस्सा सामुदायिक योगदान से ही पूरा होता है।
दानदाताओं के सामने जब आप अपनी बात रख रहे हों तो उसमें कई अलग-अलग चीजें शामिल होती हैं। मसलन, शुरूआती हिस्से में संगठन के मुख्य कामों की जानकारी देना उपयोगी होता है। आप मानें या न मानें कई बार फंडर्स इस बात को लेकर बहुत स्पष्ट नहीं होते कि उनकी संस्था वास्तव में क्या करती है, भले ही उन्होंने इससे जुड़े सभी तरह के काग़ज़ात पढ़े हों। एक बार यह साफ़ हो जाए तो आप निम्नलिखित के उपयोग के बारे में सोच सकते हैं:
और अंत में, संस्थापकों या फंडरेजिंग टीम के अलावा भी एक ऐसी टीम होनी चाहिए जो धन इकट्ठा करने से जुड़ी चर्चाओं में सक्रियता से हिस्सा ले। इसे एक बढ़िया कहानी कहने वाली बात से जोड़ा जा सकता है यानी दानदाता को कहानी को आगे बढ़ाने वाले किरदारों के बारे में भी जानना चाहिए।
अगर आप पहले से ही दानदाताओं के बारे में थोड़ी जानकारी रखते हैं तो आपके लिए यह समझाना आसान हो सकता है कि कोई प्रस्ताव उनके लिए उपयुक्त क्यों है। इसी आधार पर आगे के लिए संबंध क़ायम किया जा सकता है। सभी दानदाता कार्यक्रमों से जुडे जोखिम, अपेक्षा और मदद (फ़ंडिंग के अलावा) के लिए अलग-अलग सुझाव सामने रख सकते हैं। उदाहरण के लिए सीएसआर फ़ंडिंग मुख्य रूप से इसे लोगों तक पहुंचाने और कार्यक्रम के क्रियान्वयन पर केंद्रित होता है। ऐसे में हो सकता है कि फंड का इस्तेमाल करने के सीमित तरीक़े ही हों। वहीं, कॉर्पोरेट अपने ब्रांड के प्रचार के प्रति अधिक सजग हो सकते हैं। दूसरी तरफ अल्ट्रा-एचएनआई या अति-उच्च आय वर्ग वाले लोग अधिक धैर्यवान हो सकते हैं। अपने दीर्घकालिक दृष्टिकोण के चलते वे नए विकसित हो रहे क्षेत्रों और शोध आदि में अधिक जोखिम उठा सकते हैं।
सभी दानदाताओं की रणनीतिक वरीयताएं अलग-अलग होती हैं, इसलिए इसे समझना भी ज़रूरी है।
सभी दानदाताओं की रणनीतिक वरीयताएं अलग-अलग होती हैं, इसलिए इसे समझना भी ज़रूरी है। यह उन क्षेत्रों के बारे में भी हो सकती हैं जिन पर अब तक उनका फ़ोकस नहीं रहा है। इस पर ध्यान देना ज़रूरी होता है कि वे मुख्य रूप से समुदायों और सरकारी कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में जमीनी स्तर के प्रयासों का समर्थन करते हैं या फिर उनका नज़रिया व्यापक है और वे मुद्दों की बेहतर समझ के लिए शोधों के लिए और नीति निर्धारण से जुड़े समाधान खोजने में भी मदद करना चाहते हैं। इस बात का विश्लेषण करें कि क्या दानदाता सेक्टर-लेवल के संस्थानों और ढांचों को बनाने में रुचि रखते हैं। या क्या उनका उद्देश्य इंक्यूबेटरों या एक्सिलेटरों के ज़रिए बदलाव लाने वालों को एकजुट करना भर है? या फिर उनका इरादा कल्याण और परोपकार में लगाए धन को बढ़ाना और मदद की परम्परा को बढ़ावा देना है। फ़ंड देने वालों की रणनीतियों पर पूरा ध्यान देने से स्वयंसेवी संस्थाओं को उनके साथ रिश्ते बनाने में मदद मिल सकती है।
महामारी के दौरान स्वयंसेवी संस्थाओं ने जनकल्याण की भावना, धैर्य, समानुभूति और साहस का प्रदर्शन करते हुए सरकारी योजनाओं को लागू करवाने और लोगों तक इनसे जुड़ी जानकारी पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अब जब हम महामारी से उबर रहे हैं, सामाजिक क्षेत्र के सामने ऊंचे उद्देश्य रखने और धन इकट्ठा करने को ध्यान में रखकर रणनीतिक दृष्टिकोण अपनाने का अवसर है।
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