आमतौर पर यह माना जाता है कि बच्चों को सिखाना–बताना और समय–समय पर इसकी परख करते रहना ही, शिक्षक की प्रमुख ज़िम्मेदारियां हैं। स्वाभाविक है कि यह परख, छमाही–वार्षिक परीक्षा या सतत शैक्षणिक मूल्यांकन के जरिए की जाती है। लेकिन क्या सिखाने और परखने के इस चक्र के बीच में भी कुछ आता है?
अक्सर बच्चों का शैक्षणिक मूल्यांकन करते हुए हम देखते हैं कि किसी बच्चे को अमुक विषय में कितने नम्बर मिले, या वह सारे प्रश्नों के जवाब दे पाया या नहीं। हम यह भी देखते हैं कि वह सिखाई-बताई गई बातों को कितना याद रख पाया और जो लिखना सिखाया गया था, उसे किस हद तक सही-सही लिख पाया? कुछ मामलों में थोड़ा आगे बढ़कर हम यह देख लेते हैं कि वे कौन से प्रश्न थे जो बच्चे ने छोड़ दिए हैं या किन प्रश्नों की वजह से उसे कम नम्बर मिले हैं। लेकिन यह सब करते हुए हम अक्सर उन कारणों पर गौर नहीं करते हैं जिनकी वजह से कोई बच्चा प्रश्नों को छोड़ देता है, जैसे कि क्या प्रश्न छोड़ने की वजह उसके द्वारा पढ़ाई-लिखाई में की गई कमी है या उसकी समझ ही कम है? इससे जुड़ी दूसरी ज़रूरी बात जो आमतौर पर नहीं होती दिखती है, वह है इस विषय पर बच्चे से विस्तृत संवाद। इस संवाद की कितनी जरूरत है और क्या यह संवाद व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों स्तरों पर किया जा सकता है? बच्चों के साथ काम करते हुए जब हमने इन बातों पर गौर किया तो एक अलग ही तस्वीर सामने आई और यही वह कड़ी है जो सिखाने और परखने के चक्र से ग़ायब दिखती है।
राजस्थान के कई जिलों में काम करने वाली समाजसेवी संस्था सेवा मंदिर, हर साल स्कूल जाना छोड़ चुके (शालात्यागी) बच्चों के लिए आवासीय शिविरों का आयोजन करती है। इन शिविरों का आयोजन साल में तीन बार किया जाता है जिसमें 150 से 200 बच्चे शामिल होते हैं। इन शिविरों में बतौर शिक्षक जुड़ने के चलते, ऐसे कई मौके मिलते हैं जहां बच्चों के सीखने-सिखाने के आयामों को बहुत क़रीब से और बारीकी से देखा-समझा जा सकता है। ऐसे कुछ अनुभवों के यहां पर साझा करने की सबसे बड़ी वजह यही है कि हम बच्चों की शैक्षणिक प्रगति को उनकी परीक्षा में मिलने वाले नंबरों से अलग करके देख सकें।
शिविर के दौरान, बच्चों के सतत मूल्यांकन की जिम्मेदारी शिक्षक की होती है। हम क्रम से सभी विषयों (हिंदी, गणित, अंग्रेजी) के प्रश्नों पर बच्चों के साथ बात करते हैं। हर बच्चे के जवाब अनुसार संवाद को आगे बढ़ाते हैं। ऐसी ही एक गतिविधि के दौरान, एक शिक्षक ने बच्चों का मूल्यांकन करने के बाद उन्हें जांची हुई कापियां दे दीं और कहा कि अब वे खुद अपनी कापियां दुबारा जांचें और देखें कि उन्हें कितने नम्बर मिले हैं और क्यों? लगभग पौन घंटे तक 25 बच्चों ने अपनी उत्तर-पुस्तिकाओं का मूल्यांकन किया और साथ में बैठे दूसरे बच्चों की कापियों को भी देखा। बच्चों ने इस पर आपस में बात की और यह भी देखा उन्होंने जिन प्रश्नों को छोड़ दिया था, उनके कई साथियों ने भी उन्हें छोड़ दिया था। शिक्षक ने बच्चों से प्रश्न पहचानने, उसे समझने और हर प्रश्न पर थोड़े समय रुक कर देखने की बात की। उन्होंने पूछा कि ऐसा क्यों हुआ तो इस पर बच्चों के जवाब कुछ इस तरह थे – ‘प्रश्नपत्र जल्दी पूरा करना था’ या ‘यह प्रश्न हम देख नहीं पाए’ या ‘घंटी लगने से पहले सारे प्रश्न करने थे नहीं तो छूट जाता’ और कुछ ने तो ‘भूख लगी थी’ जैसे कारण भी गिनाए।
क्या प्रश्न छोड़ने की वजह उसके द्वारा पढ़ाई-लिखाई में की गई कमी है या उसकी समझ ही कम है?
इन प्रश्नों पर चर्चा के दौरान एक दिलचस्प बात देखने को मिली जिसे कुछ उदाहरणों से समझते हैं। जैसे हिंदी के प्रश्नपत्र में एक प्रश्न में पहाड़ का चित्र बना था जिसे देखकर आकृति का नाम लिखना था। सभी बच्चों ने इसके अलग-अलग जवाब लिखे थे। इन जवाबों में ‘पहाड़’ ‘पाहाड़’ ‘पाहड़’ ‘पहाड़े’ शामिल थे। इस क्रम में शिक्षक ने उन सभी बच्चों को बुलाया और उनके जवाबों कारण जानने की कोशिश की कि बच्चों ने वह शब्द क्या सोचकर लिखा था? सबसे पहले जिस बच्चे को बुलाया गया था, उसने लिखा था – ‘पाहाड़’। जब शिक्षक ने बच्चों से पूछा कि क्या यह जवाब सही है? लगभग एक तिहाई बच्चों ने हाथ उठाकर कहा कि ‘हां, सही लिखा है।’ इस पर शिक्षक ने बच्चों से कहा कि ‘एक बार इस आकृति का नाम जोर से बोलकर देखो तो सभी बच्चों ने तेज आवाज में एक स्वर में बोला – पाहाड़।
बच्चों के इस जवाब मुख्य कारण यह था कि वे अपनी बोलचाल की भाषा में पहाड़ को पाहाड़ ही बोलते हैं। इसलिए उन्होंने पाहाड़ ही लिखा और उसे सही भी मान रहे थे। वहीं, जिन बच्चों ने जवाब में ‘पहाड़े’ लिखा था, उनका कहना था कि चित्र में पहाड़ कुछ ऐसे बना था जिसमें पहाड़ की एक से ज्यादा चोटियां दिख रही थीं, इसलिए उन्होंने बहुवचन में जवाब लिखा। और, जिन बच्चों ने ‘पहाड’ लिखा था, उन्होंने बताया कि वे ड और ड़ के अंतर को नहीं समझ रहे थे। चित्रों को देखकर नाम लिखने से जुड़े अन्य प्रश्नों और वाक्य में शब्दों को सही क्रम से जमाने के जवाबों में भी बच्चों ने कुछ इसी तरह की ग़लतियां की थीं। इससे हमें यह समझ आया कि बच्चे जैसा बोलते हैं, वैसा ही लिखते भी हैं। इस अनुभव के बाद शिक्षकों में यह सहमति बनी कि स्थानीय भाषा को हिंदी से जोड़ना जरूरी है। हमने यह भी तय किया जिन प्रश्नों के जवाब बच्चों ने स्थानीय भाषा में दिए हैं, उनके लिए कॉपी जांचते हुए, उन्हें पूरे अंक दिए जाएं।
बच्चों से आगे हुई चर्चा के दौरान, उनका यह भी कहना था कि ‘मेरा तो एक ही नाम है लेकिन सूरज और चांद के इतने सारे नाम क्यों हैं?’ या फिर, पहाड़ या पानी को और किन नामों से बुलाया जाता है। बच्चों के बोलचाल में इस्तेमाल होने वाले नाम और किताब में लिखे गए नामों में किस तरह का फर्क है। इस तरह के तमाम सवाल-जवाबों के जरिए शिक्षक ने उन्हें यह समझना सिखाया कि प्रश्नपत्र में यह कैसे पहचाना जाए कि वहां पर आपसे क्या पूछा जा रहा है, कैसे प्रश्न में ही वे निर्देश होते हैं जो बताते हैं कि उन्हें जवाब में क्या लिखना है। साथ ही, यह भी कि प्रश्न एक ही होता है लेकिन उसके जवाब देने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं।
इन सारे अलग-अलग प्रश्नों पर बात करते हुए आखिरी में बच्चों के साथ इस बात पर एक सफल चर्चा हो सकी कि प्रश्नपत्र को ध्यान से पढ़कर हल करना जरुरी है। ऐसा करके हम कैसे अपने सवालों को सही तरीके से हल कर सकते हैं। बच्चों को कक्षा में पढ़ाते समय किया गया अवलोकन शिक्षकों को यह समझने में मदद करता है कि बच्चों के सीखने के अलग-अलग तरीके क्या हो सकते हैं। यह उनके और अन्य शिक्षकों के लिए अपनी शैक्षणिक पद्धतियां बनाने में मददगार होते हैं।
बच्चों की कल्पनाशीलता व विषय-वस्तु से सम्बन्ध स्थापित करने की प्रक्रिया उनके वातावरण से जुड़े होते हैं।
जैसे हमने देखा कि कई बार बच्चों के दैनिक जीवन में प्रयोग में आने वाले शब्द और उसके मानक हिंदी उच्चारण में काफी फर्क होता है। इसकी वजह से जब बच्चे अपनी उच्चारण शैली में जवाब देते या लिखते हैं तो कई बार उन्हें मात्राई दोष की तरह देखा जाता है। यह माना जाता है कि बच्चे को लिखने और मात्रा ज्ञान पर काम करने की जरुरत है। कई बार उसे पूरी तरह गलत मान लिया जाता हैं तो कई बार आधा सही और आधा गलत। इसके साथ ही बच्चों द्वारा रंगों की पहचान, रंगों के नामों की पहचान और उन्हें लेकर स्पष्टता में भी अंतर दिखाई पड़ता है।
अलग-अलग बच्चों की अपनी कल्पनाशीलता व विषय-वस्तु से सम्बन्ध स्थापित करने की प्रक्रिया और उनका तरीका, उनके दैनिक जीवन और वातावरण से जुड़े होते हैं। कई बार यह भी देखा जाता है कि कुछ प्रश्न, कुछ बताये या पूछे गए उदाहरण बच्चों ने शायद पहले कभी देखे-सुने ही न हों। ऐसे में उससे जुड़ पाने में उनको दिक्कत का सामना करना पड़ता है और वे कही जा रही बात को पूरी तरह से नहीं समझ पाते हैं। शिक्षकों को सिखाने की प्रक्रिया इन तमाम बातों को शामिल करने की जरूरत होती है। सीखते हुए वे विषय और अवधारणा को जितना अपने आप से जोड़कर देख पाएंगे, सीखना उनके लिए उतना ही आसान और मज़ेदार होगा।
इसके अलावा, हर बच्चे के प्रश्न समझने और जवाब देने का तरीका अलग होता है। कई बार बच्चे प्रश्नपत्र में प्रश्न इसलिए भी छोड़ देते हैं कि उन्हें प्रश्नवाचक चिन्ह और पूर्णविराम जैसे चिन्हों की समझ नहीं होती है। इन सारी बातों और अनुभवों से साफ होता है यदि बच्चों को प्रश्न समझ में आ जाये और उनके पूर्व ज्ञान, संदर्भ और वातावरण को शिक्षक/मूल्यांकनकर्ता समझे तो बच्चों के सीखने की प्रक्रिया रुचिकर बनेगी। और, बच्चा भी अपना पूरा प्रयास करेगा कि वह अपनी समझ और ज्ञान को सामने रख सके।
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