ट्रांसजेंडर पहचान पत्र को बनवाने में महीनों का समय क्यों लगता है?

मेरा नाम जसप्रीत सिंह है। मेरी पहचान के कई पहलू हैं। मैं एक साधारण सिख परिवार से आता हूं और अनुसूचित जनजाति से संबंध रखता हूं। मेरा परिवार विभाजन के बाद पाकिस्तान से पलायन कर जम्मू कश्मीर आकर बस गया था। और, वर्तमान में मैं जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में शोध (पीएचडी) का छात्र हूं। लेकिन इन सब बातों से अलग मेरी एक महत्वपूर्ण पहचान यह भी है कि मैं एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से आता हूं। मैं खुद को द्वि-लैंगिक पहचान (बाइनरी जेंडर आइडेंटिटी) से अलग देखता हूं जिसे नॉन-कन्फर्मिटी या न्यूट्रल जेंडर भी कहा जाता है। एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से आने वाले सभी लोगों के लिए एक पहचान दस्तावेज बनता है जिसे ट्रांसजेंडर सर्टिफिकेट कहा जाता है। मैं ऐसे कई किस्से बता सकता हूं जिनमें लोगों को यह सर्टिफिकेट बनवाने के लिए महीनों का इंतज़ार करना पड़ा है, सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाने पड़े हैं या तमाम अधिकारियों को अनगिनत बार ई-मेल भेजते रहना पड़ा है। इसमें कश्मीर से आने वाले मेरे एक दोस्त, मेरे पार्टनर और अपने खुद के मामले में तो मैं सक्रिय रूप से शामिल रहा हूं।

ट्रांसजेंडर सर्टिफिकेट के साथ एक ट्रांसजेंडर पहचान पत्र भी बनाता है। ये दस्तावेज हमारे लिए शिक्षा या नौकरी में आरक्षण, फीस में रियायत और अलग-अलग तरह की योजनाओं का लाभ लेने में काम आते हैं। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के पोर्टल पर जाकर या फिर जिला मजिस्ट्रेट के पास जाकर, इसके लिए आवेदन किया जा सकता है। इसमें अधिकतम 30 दिन का समय लगता है। लेकिन तीनों ही बार, मेरा अनुभव रहा है कि इस प्रक्रिया में चार से छह महीने लगे हैं।

प्रमाणपत्र हासिल करने की पूरी प्रक्रिया ऑनलाइन रखने का उद्देश्य ही यह है कि एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को किसी भी तरह के सामाजिक भेदभाव, शोषण या दबाव का सामना किए बगैर आगे बढ़ने में मदद मिल सके। मुझे लगा था कि जब मैंने बनवाया तब इतनी दिक्कतें आई, लेकिन अब तक तो लोग थोड़े संवेदनशील हो गए होंगे। मैंने प्रक्रिया को लेकर अधिकारियों से बात की थी तो मुझे आश्वासन मिला था कि यह सब सही किया जाएगा मगर, मेरे पार्टनर का सर्टिफिकेट बनवाने के लिए भी मुझे उसी तरह बार-बार ईमेल करना पड़ रहा है, वही महीनों इंतज़ार करना पड़ रहा है। उनके घर पर अभी तक माहौल खराब है और कागज भी नहीं बन पाया है। एक दस्तावेज जो हमें भेदभाव और अपमान से बचाने के लिए ही जरूरी है, उसे बनवाने में ही हमें जो सहना पड़ जाता है, उसे क्या कहा जाना चाहिए।

जसप्रीत सिंह, जम्मू में रहते हैं और जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे हैं।

आईडीआर पर इस जमीनी कहानी को आप हमारी टीम के साथी सिद्धार्थ भट्ट से सुन रहे थे।

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