लद्दाख के पांग इलाक़े में ज़मीन के एक बहुत बड़े -लगभग 80 किमी क्षेत्र वाले- हिस्से पर एक मेगा सौर ऊर्जा संयंत्र की स्थापना किया जाना तय हुआ है। अनुमान है कि इस ऊर्जा संयत्र से 13 गीगा वॉट तक अक्षय ऊर्जा उत्पन्न हो सकती है। लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा मिलने के तुरंत बाद ही शुरू हुई इस परियोजना को पूरा करने की समयसीमा, साल 2029–30 तक रखी गई है।
लेकिन 13 गीगा वॉट वाला यह विशाल सौर ऊर्जा संयंत्र हमारे लिए एक बड़ी चिंता बन गया है, क्योंकि इसके कारण हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ सकता है। उदाहरण के लिए, पांग एक शुष्क क्षेत्र है जहां धूल बहुत उड़ती है। समय के साथ इन सौर पैनलों पर धूल की परत चढ़ेगी जिसे धोने के लिए भारी मात्रा में पानी खर्च करना पड़ेगा। हमें डर है कि इससे क्षेत्र के जल स्तर और ग्लेशियरों पर भी इसका गंभीर प्रभाव पड़ेगा। यह क्षेत्र घुमंतू जनजातियों के लिए चारागाह के तौर पर महत्वपूर्ण है क्यों कि इससे उनके मवेशियों को नियमित चारा उपलब्ध होता है। इस प्रोजेक्ट के कारण इलाक़े की कई जनजातियां इस भूमि के उपयोग से वंचित हो जाएंगी।
परियोजना के लिए, एक अतिरिक्त पाइपलाइन को मंजूरी दे दी गई है जो इस बिजली को हिमाचल प्रदेश और पंजाब से होते हुए हरियाणा के कैथल तक पहुंचाएगी, जहां इसे राष्ट्रीय ग्रिड के साथ एकीकृत किया जाएगा। इस पाइपलाइन के निर्माण से अपने प्राकृतिक संसाधनों के साथ, हमारे द्वारा बनाए गए नाजुक संतुलन को और अधिक ख़तरा पहुंचने की संभावना है।
इस सौर ऊर्जा संयंत्र से हम लद्दाखियों की बिजली की मांग पर कोई विशेष असर नहीं पड़ेगा क्योंकि हमारी वर्तमान ज़रूरत निमो बाज़गो और चुटक जैसे हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्लांट और अन्य कई सौर संयंत्रों के जरिए पहले से ही पूरी हो रही है। परियोजना की योजना बनाते समय हममें से किसी से सलाह नहीं ली गई। स्थानीय निर्वाचित पार्षदों की एक वैधानिक संस्था लद्दाख स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद, लेह को भी इस पूरी योजना और प्रक्रिया से बाहर रखा गया था।
जिग्मत पलजोर, लद्दाख के एक कार्यकर्ता और एपेक्स बॉडी लेह के को-ऑर्डिनेटर हैं।वे वर्तमान में #क्लाइमेट फ़ास्ट आंदोलन के भी को-ऑर्डिनेटर हैं।
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समुद्र से 3,000 मीटर से अधिक की ऊंचाई पर स्थित लद्दाख को आइस हॉकी के लिए आदर्श माना जाता है। यह इस इलाक़े का सबसे लोकप्रिय विंटर स्पोर्ट है। लगभग 50 साल पहले भारतीय सेना के जवानों ने पूर्वी लद्दाख में इसे डाउनटाइम गेम के तौर पर खेलना शुरू किया था। समय के साथ, इस खेल ने स्थानीय लोगों के बीच अच्छी-खासी लोकप्रियता हासिल कर ली है।
लद्दाख में पले-बढ़े लोगों की बचपन की यादों में, सर्दियों की छुट्टियों में होने वाली आइस हॉकी का एक विशेष स्थान है। आज, लद्दाख में पुरुष एवं महिला, दोनों ही प्रकार की आइस हॉकी टीमों की संख्या 20 से अधिक है। दरअसल, भारतीय महिला आइस हॉकी टीम की 20 खिलाड़ियों में से 18 लद्दाख से हैं। हर साल, लेफ्टिनेंट गवर्नर कप और चीफ एग्जेक्यूटिव काउंसिलर कप जैसे लोकप्रिय शीतकालीन टूर्नामेंट यहां आयोजित किए जाते हैं जिनमें लद्दाख के विभिन्न हिस्सों से टीमें भाग लेती हैं। फरवरी में आइस हॉकी नेशनल चैंपियनशिप 2023 का आयोजन भी लद्दाख में ही हुआ था।
हालांकि जलवायु परिवर्तन, जिसके कारण ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, इस लोकप्रिय खेल पर एक बड़े खतरे की तरह मंडरा रहा है। अतीत में, आमतौर पर खेलों का आयोजन करजू के प्राकृतिक बर्फीले तालाब (आइस पॉन्ड) में किया जाता था। खिलाड़ी इन तालाबों में अभ्यास भी करते थे। लेकिन बढ़ते तापमान ने इसे मुश्किल बना दिया है। हॉकी खिलाड़ी और लद्दाख महिला आइस हॉकी फाउंडेशन की सदस्य डेस्किट कहती हैं कि, ‘मैं लद्दाख में महिला हॉकी खिलाड़ियों की पहली पीढ़ी में से हूं। मैं साल 2016 से ही राष्ट्रीय टीम में डिफेंस में खेल रही हूं। चूंकि हमारे पास अनुकूल कृत्रिम आइस हॉकी रिंक नहीं है इसलिए हम पूरी तरह इन जमे हुए तालाबों पर ही निर्भर हैं। और, अब जलवायु परिवर्तन ने हमारे लिए एक बड़ी समस्या खड़ी कर दी है। जब मैंने पहली बार खेलना शुरू किया था, तब हमें सर्दियों में कम से कम दो से चार महीने का समय खेलने के लिए मिल जाया करता था, लेकिन अब, इस ठंडे प्रदेश में भी सर्दी काफी देर से आती है और जल्दी चली जाती है। नतीजतन, हमें खेलने के लिए केवल दो महीने ही मिलते हैं।”
पिछले कुछ दशकों में, वैज्ञानिकों ने लद्दाख में बर्फबारी और ग्लेशियर के घनत्व, दोनों में गिरावट दर्ज की है। पर्यटकों की बढ़ती संख्या ने भी इस मामले को जटिल ही बनाया है। डेस्किट कहती हैं कि ‘पूरे साल सभी तरह की सुविधा प्राप्त विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय टीमों की तुलना में हमें केवल सर्दी के मौसम में ही अभ्यास करने और अंतर्राष्ट्रीय चैंपियनशीप के लिए तैयारी करने का मौका मिलता है। इससे हमारा प्रशिक्षण और प्रदर्शन वास्तव में प्रभावित होता है।’
डेस्किट बताती हैं कि लद्दाख में कृत्रिम आइस हॉकी रिंक मुहैया करवाने का वादा किया गया था। वे अफसोस जताती हैं कि, ‘अगर कृत्रिम रिंक नहीं बनाया गया और जलवायु परिवर्तन का प्रभाव मौजूदा गति से जारी रहा तो हम इस बेहद पसंदीदा शीतकालीन खेल को खो देंगे।
पिछले कुछ वर्षों से खेल का आयोजन लेह में एनडीसी आइस हॉकी रिंक में किया जा रहा है; इस रिंक का निर्माण पहाड़ी क्षेत्रों में इस खेल के प्रति लोगों की बढ़ती रुचि और बेहतर भविष्य की इसकी संभावना को देखते हुए किया गया था। लेकिन आइस रिंक के निर्माण और विकास का काम अब भी अधूरा है। इस खेल को बचाए रखने के लिए कृत्रिम रिंक के निर्माण की मांग भी तेजी से बढ़ी है।
डीचन स्पाल्डन लेह, लद्दाख की एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। मूल कहानी चरखा फीचर्स द्वारा प्रकाशित की गई थी।
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मैं लद्दाख के लेह ज़िले के फ़ेय गांव का निवासी हूं। यहां अपने गांव में मैं स्थाई पर्यटन (इकोटूरिज़्म) और उचित कचरा प्रबंधन को बढ़ावा देने का काम करता हूं। मेरे काम में हमारे पर्यावरण पर कचरे के हानिकारक प्रभावों के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए समुदाय के युवाओं के साथ जुड़ना शामिल है। इसके अलावा मैं पंचायत स्तर पर अपशिष्ट प्रबंधन के बारे में बातचीत की सुविधा और पर्यटकों को पारिस्थितिक पर्यटन के महत्व के बारे में शिक्षित करने का काम भी करता हूं। अपने इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए मैं डिजिटल मीडिया, प्लेकार्ड और फ़िल्मों और मौखिक बातचीत जैसे माध्यमों का इस्तेमाल करता हूं।
पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को लेकर मेरी समझ उस समय विकसित हुई जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में पीजीडीएवी कॉलेज में अर्थशास्त्र विषय में बीए कर रहा था। मैं 2019 में सरकारी छात्रवृत्ति पर दिल्ली गया था। एक तरह से देखा जाए तो यह सब कुछ एक संयोग ही था। मैंने 12वीं क्लास में अर्थशास्त्र इसलिए चुना था क्योंकि इस विषय में अंक लाना आसान था। अर्थशास्त्र में भविष्य को लेकर मेरा कोई स्पष्ट लक्ष्य नहीं था। छात्रवृति मिलने के बाद मैं शहर जाकर रहने लगा। मैं पहली बार लद्दाख से बाहर निकला था। मुझसे दिल्ली की गर्मी बर्दाश्त नहीं हुई। लद्दाख़ की तुलना में बहुत अधिक आबादी होने के कारण दिल्ली में ज़्यादा मात्रा में कचरा पैदा होता है। इतनी भारी संख्या में कचरा देखने का यह मेरा पहला अनुभव था। मैं अपने कॉलेज के जियो क्रूसेडर नाम की एक इन्वायरॉन्मेंटल सोसायटी में शामिल हो गया। इस सोसायटी के सदस्यों के साथ मेरी बातचीत ने शहर की कचरे की समस्या के बारे में मेरी धारणा को व्यापक बनाया। दिल्ली के पास अपने पहाड़ थे, लेकिन ये सभी कचरे के पहाड़ थे।
दिल्ली से वापस लौटने के बाद मैंने अपने शहर के कचरे के परिदृश्य को नई नज़र से देखना शुरू कर दिया।
दिल्ली में बिताया गया समय बाद में लेह में मेरे काम में मददगार साबित हुआ। 2020 में कोविड-19 के प्रकोप के कारण कॉलेज बंद होने के बाद मैं अपने घर वापस लौट गया। और तब से अब तक मैं यहीं हूं। इस बीच मैं सिर्फ़ 2022 में अपनी परीक्षाओं में शामिल होने दिल्ली गया था। मैंने अपने शहर के कचरे के परिदृश्य को नई नज़र से देखना शुरू कर दिया और अपने शहर के कचरा प्रबंधन से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर समुदाय के लोगों के साथ मिलकर काम करने लगा। पहली समस्या थी पर्यावरण के बारे में सीमित जागरूकता और दूसरी थी सूखे-कचरे को अलग करने का मुद्दा।
सुबह 8 बजे: मैं सुबह उठने के बाद अपने परिवार के लोगों के साथ नाश्ता करता हूं। मेरे परिवार में मेरे अलावा माता-पिता, छोटा भाई और बहन हैं। माँ घर सम्भालने के अतिरिक्त गांव के स्वास्थ्य केंद्र में आशा कार्यकर्ता के रूप में भी काम करती हैं। पिताजी लोक निर्माण विभाग में सरकारी कर्मचारी हैं। वे मेरे काम और इस काम के प्रति मेरी रुचि से खुश हैं। मेरे भाई-बहन मुझसे छोटे हैं; मेरा भाई ग्यारहवी क्लास में है और बहन तीसरी क्लास में पढ़ती है।
सुबह का नाश्ता करने के बाद मैं काम पर निकल जाता हूं। मैंने हाल ही में पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली एक स्वयंसेवी संस्था लिटिल ग्रीन वर्ल्ड में फ़ील्ड असिस्टेंट के रूप में काम करना शुरू किया है। यह युवाओं के साथ शिक्षक प्रशिक्षण और कार्यशालाओं के माध्यम से पर्यावरण के बारे में ज्ञान के प्रसार पर केंद्रित एक कन्सल्टेंसी है। लिटिल ग्रीन वर्ल्ड का दफ़्तर लेह के मुख्य इलाक़े में है। हमारा गांव शहर से थोडा दूर है इसलिए मुझे दफ़्तर तक जाने के लिए सवारी की ज़रूरत पड़ती है। जिस दिन कोई सवारी नहीं मिलती उस दिन मैं पैदल ही चला जाता हूँ। मुझे सुबह 10 दफतर पहुँचना होता है। यह मेरी पहली औपचारिक नौकरी है और मैं नौकरी वाले माहौल में फ़ील्ड वर्क के ज्ञान को लागू करना सीख रहा हूं। यहां हर काम को करने के लिए पहले से ही योजना और समय दोनों ही निश्चित होता है—हम स्कूल का दौरा करते हैं, बच्चों के साथ वर्कशॉप आयोजित करते हैं और बाद में उनसे इसके बारे में पूछताछ करते हैं। मैं पर्यावरण के विषय में और भी बहुत कुछ सीखना और जानना चाहता हूं और मुझे उम्मीद है मेरी यह नौकरी इस काम में मददगार साबित होगी।
दिल्ली प्रवास के दौरान मेरा काम और प्रशिक्षण दोनों ही पूरी तरह से अनौपचारिक था लेकिन वह एक शुरुआत थी। जागरूकता आने के साथ मैंने अपने निजी जीवन में छोटे-छोटे बदलाव लाना शुरू किया। मैं फल और सब्ज़ी ख़रीदने जाते समय अपने साथ हमेशा एक थैला लेकर जाता था वरना दुकानदार मुझे प्लास्टिक की थैलियों में सामान पकड़ा देते थे। मैं अपने आसपास के लोगों को भी ऐसा ही करने के लिए कहता हूं। जब भी मेरे दोस्त अपने साथ थैला लाना भूल जाते वे मेरे सामने अपनी गलती मान लेते थे।मेरा अब भी यही मानना है कि बदलाव लाने के लिए छोटे-छोटे कदम उठाने पड़ते हैं। जब मैंने लेह के बच्चों के साथ काम शुरू किया था तब मैंने उन्हें बांस से बने टूथब्रश बांटे थे ताकि उनके पास अपनी इस रोज़मर्रा की ज़रूरत के लिए एक बायोडिग्रेडेबल विकल्प रहे। मैं चाहता था कि वे हर सुबह बांस से बने इस टूथब्रश को देखें और सोचें कि कैसे इसने एक हानिकारक वस्तु की जगह ली है। धीरे-धीरे यह विचार उनके रोज़मर्रा जीवन के अन्य कामों में भी शामिल हो जाता है।
शाम 5 बजे: आज काम के समय जब मैं बच्चों से बातचीत कर रहा था तभी मेरा ध्यान एक बात की ओर गया। मुझे यह एहसास हुआ कि किसी तरह के उपहार या इनाम वाले वर्कशॉप में बच्चे अधिक रुचि दिखाते हैं। घर लौटते समय मैं लगातार लोथुन लोबथुक त्सोग्स्पा फ़ेय (यूनाइटेड यूथ ग्रुप ऑफ़ फ़ेय) के लिए एक चित्रकारी प्रतियोगिता के आयोजन के बारे में सोच रहा था। इस ग्रुप को मैंने 5वीं–6ठी कक्षा के बच्चों के लिए शुरू किया था। घर पहुंचकर मैंने इस बारे में अपनी माँ से बात की और उन्हें भी मेरा विचार अच्छा लगा। इसलिए मैंने लोथुन लोबथुक त्सोग्स्पा फ़ेय के व्हाट्सएप ग्रुप में एक संदेश भेजा और बच्चों को इकट्ठा होने के लिए कहा।
यह एक बहुत ही बढ़िया सत्र था। बच्चों ने पृथ्वी की स्थिति दिखाने वाले चित्र बनाए। एक चित्र में एक तरफ़ साफ़ जल और हरियाली थी और दूसरी तरफ़ औद्योगिक कचरा और प्रदूषण। यह हमें दिखाता है कि क्या सम्भव है और पृथ्वी किस रूप में बदल रही है। मैं शाम को व्यस्त नहीं रहता हूं। अक्सर शाम के लिए मेरा कोई निश्चित कार्यक्रम नहीं होता है। मुझे खेल-कूद पसंद है इसलिए किसी दिन मैं 11वीं–12वीं क्लास के छात्रों के साथ फूटबॉल खेलने चला जाता हूं। वहीं किसी दिन मैं बच्चों के साथ बैठकर वॉल-ई और फ़ाइंडिंग नीमो जैसी फ़िल्में देखता हूं। फ़िल्म देखने के बाद हम लोग अक्सर एक अनौपचारिक बातचीत भी करते हैं। उदाहरण के लिए फ़ाइंडिंग नीमो देखने के बाद हम लोगों ने समुद्री पर्यावरण और मछलियों को उनके वास से हटाने से उनपर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में बातचीत की थी।
जब हम ने शुरूआत की थी तब बच्चे उतना ही जानते थे जितना कि मैं उनकी उम्र में जानता था।
लोथुन लोबथुक त्सोग्स्पा फ़ेय की शुरुआत 2020 का लॉकडाउन हटने के तुरंत बाद हुई थी और तब से ही यह बच्चों और मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा है। दिल्ली से वापस लौटने के बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ कि लेह में कचरे के रिसाइक्लिंग की उचित व्यवस्था और इंफ़्रास्ट्रक्चर का अभाव है। इसके बाद ही मैंने बच्चों को समूहों में जुटाना शुरू कर दिया क्योंकि मेरा मानना है कि बच्चे ही भविष्य हैं। उनके बग़ैर मैं कुछ भी नहीं कर सकता था। जब हम ने शुरूआत की थी तब बच्चे उतना ही जानते थे जितना कि मैं उनकी उम्र में जानता था। यूज-एंड-थ्रो पदार्थों के इस्तेमाल से होने वाली हानि और कचरे के उचित निपटान की ज़रूरत के बारे में ये बच्चे कुछ नहीं जानते थे। लेकिन अब ये सफ़ाई अभियान में हिस्सा ले रहे हैं!
सफ़ाई अभियान का पहला सत्र महामारी की पहली लहर के दौरान आयोजित किया गया जब बच्चे घर पर रहकर ऊब रहे थे। मैंने उनसे कहा “5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस है। क्या हमें उस दिन सफ़ाई अभियान आयोजित करना चाहिए?” उनका जवाब हां था। मां ने बच्चों के लिए दोपहर का खाना तैयार किया था। बच्चों ने कचरा सेग्रीगेशन में मदद की और यह पूरा आयोजन उनके लिए एक पिकनिक की तरह हो गया था।
इस दौरान मुझे यूट्यूब और इंस्टाग्राम पर देखी गई एक प्रक्रिया के इस्तेमाल का विचार आया। इसे बॉटल ब्रेक के नाम से जाना जाता है और इस प्रक्रिया में प्लास्टिक की बोतल में कचरा इकट्ठा कर उसे एक उपयोगी वस्तु में बदला जाता है, जैसे कि घर बनाने वाली ईंट। लेकिन स्थानीय लोगों विशेष रूप से बुजुर्गों को यह तरीक़ा पसंद नहीं आया। बच्चों की तुलना में उन्हें समझाना ज़्यादा मुश्किल था। अंतत: उन्हें समझाने के लिए मुझे माहौल को और अधिक स्पष्ट बनाना पड़ा। एक तरीका यह था कि उनसे पूछा जाए कि उन्हें क्यों लगता है कि लेह और लद्दाख अब पहले से ज्यादा गर्म हैं। हाल ही में कारगिल और जांस्कर इलाक़े में बाढ़ आई थी। इस तरह की प्राकृतिक आपदाएं नियमित होने लगी हैं इसलिए मैं इस विषय का इस्तेमाल उनसे बातचीत बढ़ाने के लिए करता हूं।
सफ़ाई अभियान की दूसरी पारी में कॉलेज और 11वीं–12वीं कक्षा के छात्रों को शामिल किया गया था। यह पहली बार था जब मैंने स्थानीय सरकार से इस काम के लिए सहायता मांगी थी। मेरी माँ आशा कार्यकर्ता हैं और स्थानी प्रशासन से उनके संबंध अच्छे हैं। इसलिए उन्हें मेरे इरादों पर किसी तरह का शक नहीं था और वे मेरी मदद के लिए तैयार हो गए। स्थानीय पंचायत की मदद से हमें प्लास्टिक सेग्रीगेशन के लिए फंड मिल गया। लेह में सेग्रीगेशन का केवल एक ही केंद्र है और यह मुख्य शहर में स्थित है। पंचायत और प्रशासन की मदद से मैं अपने ग्रुप को वहां लेकर गया। पंचायत और प्रशासन ने हमारे लिए गाड़ी का प्रबंध कर दिया था। हमने कचरा ले जाने के लिए केंद्र की अनुमति मांगी। उन्होंने हमें सेग्रीगेशन के तरीक़े के बारे में बताया और हम लोगों ने पीईटी बोतल, ख़तरनाक सामग्रियों और कार्डबोर्ड को अलग किया।हमने महसूस किया कि सेग्रीगेशन केंद्र की अपनी समस्याएं थीं। वहां हर ओर ढ़ेर सारे कुत्ते थे और वे वहां आकर कचरा जैसे सैनिटेरी पैड आदि चबाते थे। धीरे-धीरे इलाक़े के बच्चों ने इन मुद्दों में रुचि लेनी शुरू कर दी।
रात 9 बजे: मुझे खाना पकाना पसंद है और मैं इसमें अपनी माँ की मदद करता हूं। इस समय मैं उनसे अपने दिन भर की गतिविधियों के बारे में बातचीत भी करता हूं। आज हमलोग किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सहयोग की महत्ता पर बात कर रहे हैं। वह लोगों को इकट्ठा करने के बारे में बहुत कुछ जानती हैं। क्योंकि एक स्वास्थ्यकर्मी और आशा के लिए काम करने वाली एक स्वयं-सहायता समूह की सदस्य होने के नाते उन्हें यह करना पड़ता है। मैंने महामारी के दौरान उनकी व्यस्तता देखी थी। उन्हें घर-घर जाकर लोगों को टीके के बारे में समझाना पड़ता था और फिर टीकाकरण अभियानों का आयोजन करना पड़ता था।
खाना खाने के बाद रात 10–11 बजे तक मैं अपने बिस्तर पर आ जाता हूं। थके न होने की स्थिति में मैं अपने दिन और हमारे काम में युवाओं को शामिल करने के नए तरीक़ों के बारे में सोचता हूं। लेह में कई समस्याएं हैं, लेकिन परिवर्तन लाने की इच्छा की कमी उनमें से एक नहीं है। दिल्ली में मैं ज़िन बच्चों से मिला था उनकी रुचि सर्टिफिकेट पाने में थी ताकि बाद में वह इसे अपने सीवी में जोड़ सकें। उन्होंने स्वच्छता अभियान में हिस्सा लिया, तस्वीरें खिंचवाईं और उन्हें इंस्टाग्राम पर अपलोड कर दिया। इस काम से उनका जुड़ाव गहरा नहीं था। दूसरी तरफ़ यहाँ भाग लेना अनिवार्य नहीं है फिर भी बच्चे ख़ुशी से इसमें हिस्सा लेते हैं। प्लास्टिक बोतलों को अलग कर उनपर नंबर लिखने के बाद वे पूछते हैं “अब हम इसका क्या करेंगे?” उनके पास इन बोतलों को सेग्रीगेशन केंद्र तक पहुंचाने के लिए न तो किसी तरह का संसाधन है और न ही गाड़ी लेकिन एक बेहतर कल के निर्माण के प्रति उनकी रुचि और सोच ईमानदार है।
पूरी दुनिया के युवाओं ने पर्यावरण की सुरक्षा का ज़िम्मा अपने ऊपर ले लिया है। वे व्यस्कों की तुलना में अधिक जागरूक हैं और और इस मुहिम का हिस्सा बनकर प्रभावशाली ढंग से काम करना चाहते हैं। ग्रेटा थुनबर्ग का ही उदाहरण लेते हैं। फ़्राइडेज फ़ॉर फ़्यूचर नाम की उसकी पहल ने अब एक वैश्विक पर्यावरणीय आंदोलन का रूप ले लिया है। इस आंदोलन के योगदान से नीति में बदलाव हुआ और साथ ही युवाओं का जुड़ाव स्तर भी बेहतर हुआ है। ग्रेटा थुनबर्ग और लद्दाख की शैक्षणिक सुधारक सोनम वांगचुक मेरे आदर्श हैं।
अब गांव में एक जगह है जहां कचरा एकत्र किया जा सकता है और बाहरी इलाके में कचरे को अलग करने के लिए एक बड़ा गड्ढा है।
मैं ग्राम शासन में युवाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहा हूं, ताकि युवा निर्णय लेने की प्रक्रिया का हिस्सा बन सकें। पहले भी पंचायत युवाओं को ग्राम सभाओं में भाग लेने के लिए आमंत्रित करती थी, लेकिन वे नहीं आते हैं क्योंकि वे इन मंचों के महत्व को नहीं समझते हैं। यहां तक कि जिन दो ग्राम सभाओं में मैंने भाग लिया, उनमें भी मैं अकेला युवा था। मैं इसे बदलना चाहता हूं। मुझे खुशी है कि हमारी पंचायत नए विचारों के लिए तैयार है। अब गांव में एक जगह है जहां कचरा एकत्र किया जा सकता है और बाहरी इलाके में कचरे को अलग करने के लिए एक बड़ा गड्ढा है। मैंने हाल ही में सरपंच से अलगाव केंद्र के बारे में बात की थी। मुझे बताया गया है कि मेरा अनुरोध प्रशासन के सामने रखा गया है, और जब कोई निर्णय लिया जाएगा तो मुझे सूचित किया जाएगा।
हालांकि, लद्दाख के सामने बाहरी चुनौतियाँ भी हैं। यह एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है और भारी संख्या में पर्यटक यहां नियमित रूप से आते हैं जिसका प्रभाव परिवेश पर पड़ता है। लोग यहां 10–15 दिनों के लिए आते हैं और हर जगह जाना चाहते हैं क्योंकि उनके पास पर्याप्त समय नहीं होता है। लेकिन उनकी गतिविधियों का पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है। मुझे लगता है कि पर्यटकों को यहां के स्थानीय लोगों से मिलना चाहिए और उनके साथ समय बिताना चाहिए। उनके साथ बातचीत करनी चाहिए और लद्दाख को समझने के लिए उनके जीवन के तरीके को देखना चाहिए। वे यहां के लोगों की जीवन शैली और संस्कृति के बारे में जानने के लिए होटलों के बजाय होमस्टे में रह सकते हैं। आखिरकार, इकोटूरिज़्म का उद्देश्य स्थानीय लोगों और प्राकृतिक पर्यावरण के साथ पर्यटकों की बातचीत को बढ़ावा देना है।
जागरूकता पैदा करने के लिए कभी-कभी मैं लेह के मुख्य बाजार में तख्तियां लेकर खड़ा हो जाता हूं जहां भारत के अन्य इलाक़ों और बाहर दोनों जगह से पर्यटक आते हैं। मुझे यह विचार न्यूयॉर्क के इंस्टाग्राम हैंडल @dudewithsign से मिला है। कुछ लोग मेरे पास आकर पूछते हैं कि मैं क्या कर रहा हूं। आमतौर पर वे एक फोटो खींचते हैं, “अच्छा, अच्छा” कहते हैं और चले जाते हैं। मुझे उम्मीद है कि उनमें से कुछ बाद में मेरे द्वारा दिए जाने वाले संदेश के बारे में सोचेंगे।
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लद्दाख का लेह ज़िला मुख्यतः कृषि-पशुपालक समुदायों का इलाक़ा है। इन इलाक़ों में शेंगडोंग (भेड़िया पकड़ने वाले गड्ढे) का दिखना आम बात है। ये इस इलाक़े के पारम्परिक गड्ढे हैं और सुदूर-हिमालय क्षेत्र के लोगों ने अपने मवेशियों को भेड़ियों से बचाने के लिए इन गड्ढों को तैयार किया था। लेकिन पिछले कुछ दशकों से इनका उपयोग नहीं हुआ है और ये बुरी हालत में हैं। इन गड्ढों की ऐसी स्थिति के पीछे का मुख्य कारण लद्दाख के इंफ़्रास्ट्रक्चर में होने वाला विस्तार और वनजीव संरक्षण उपायों का लागू होना है।
2017 में एक कंजरवेशनिस्ट समूह के हिस्से के रूप में हम लोगों ने चुशूल के चरवाहों के गाँव के सदस्यों और राजनीतिक प्रतिनिधियों से इस विषय पर चर्चा शुरू की। हम लोगों ने उनसे इस इलाक़े के स्थानीय सांस्कृतिक विरासत शेंगडोंग को संरक्षित रखते हुए उन्हें सम्भावित रूप से निष्क्रिय करने के बारे में कहा।
कई बार की भेंट-मुलाक़ात और बातचीत से समुदाय के लोगों के साथ हमने एक अच्छा और स्थाई संबंध बना लिया है। इससे हमें यह समझने में मदद मिली कि वे लोग अपने मवेशियों की सुरक्षा के लिए भेड़ियों को मारते हैं। इसके अलावा हम उन्हें यह भरोसा भी दिला पाए कि हम उन्हें न तो इस काम के लिए दंडित करना चाहते हैं और न ही शेंगडोंग को ख़त्म ही करना चाहते हैं जो उनकी सांस्कृतिक विरासत का एक प्रमुख हिस्सा है।
हमने एक प्रभावशाली धार्मिक नेता और विद्वान महामहिम बकुला रंगडोल न्यिमा रिनपोछे से शेंगडोंग साइट पर एक स्तूप बनाने की सलाह के लिए संपर्क किया। हमनें उनसे कहा कि ऐसा करने से न केवल स्थानीय बौद्ध समुदाय के लिए इसका धार्मिक महत्व होगा बल्कि पर्यटकों के आने से अर्थव्यवस्था में भी तेज़ी आएगी।
रिनपोछे के मार्गदर्शन में शेंगडोंगों को निष्क्रिय करने, संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध होने और सामूहिक रूप से एक स्तूप के निर्माण की संभावना को चुशूल समुदाय ने उत्साह के साथ पूरा किया। जून 2018 में इस समुदाय ने अपने इलाक़े के सभी चारों शेंगडोंग को बेअसर कर दिया। इसके लिए उन्होंने इस ढाँचे में से कुछ पत्थरों को हटा कर एक गलियारा जैसा बना दिया। यह गलियारा किसी भी फँसे हुए जानवर के बचने के लिए एक रास्ते का काम करती है। शेंगडोंग में इस तरह के परिवर्तन से उन्हें बेअसर करने के साथ चुशल के लोगों ने अपनी पारम्परिक वास्तुकला संरचना को भी संरक्षित कर लिया।
अतीत में उपयोग में आने वाले इन चारों शेंगडोंगों में से एक शेंगडोंग के बग़ल में एक स्तूप का निर्माण किया गया।
हालाँकि स्तूप के निर्माण के खर्च में हमारा भी आर्थिक योगदान था लेकिन स्थानीय लोगों ने स्वेच्छा से न केवल धन जुटाने का काम किया बल्कि इस स्तूप के भीतर रखे जाने वाले अवशेषों को भी एकत्रित किया। स्तूप को बाद में सार्वजनिक रूप से रिनपोछे द्वारा पवित्र करवाया गया। समुदाय के लोगों से अनौपचारिक बातचीत में हमें यह महसूस हुआ कि इस पहल में उनकी भागीदारी से उनके अंदर गर्व और संतोष का भाव आया है। एक स्थानीय चरवाहे सोनम लोटस का कहना है कि “इस स्तूप से होकर गुजरते वक्त हम कुछ मंत्र पढ़ते हैं।” भेड़ियों के शिकार जैसे मामले पर उपलब्ध आँकड़ों का उपयोग करके संरक्षण पहल के असर का ढंग से मूल्यांकन किया जाना बाक़ी है। हालाँकि वास्तविक सबूत बताते हैं कि शेंगडोंग की संरचना में किए गए बदलाव के बाद इस इलाक़े में एक भी भेड़िए की हत्या नहीं हुई है।
अजय बिजूर लद्दाख में नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के हाई–एल्टीट्यूड प्रोग्राम में असिस्टेंट प्रोग्राम हेड के रूप में काम करते हैं; कर्मा सोनम लद्दाख में नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के हाई–एल्टीट्यूड प्रोग्राम में फील्ड मैनेजर के तौर पर कार्यरत हैं।
यह एक लेख का संपादित अंश है जो मूल रूप से फ्रंटियर्स इन इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन पर प्रकाशित हुआ था। इसके सह-लेखक रिग्जेन दोरजे, मुनीब खान्यारी, शेरब लोबज़ांग, मानवी शर्मा, श्रुति सुरेश, चारुदत्त मिश्रा और कुलभूषण सिंह आर. सूर्यवंशी हैं।
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